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Post #1

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Mothers day
मीटर 2122,2122,2122, 212
काफिया : आन
रदीफ : पूरी जिंदगी
एक दिन काफी नहीं, कुर्बान पूरी जिंदगी
मां निभाती तुम रही ईमान पूरी जिंदगी
तेरे ही कर्मो का फल की हम फले फूले यहां
तुम दुया ख़ुद बन गई अहसान पूरी जिंदगी
हमने देखा ही नहीं तुम को कभी थकते हुए
ना थके तेरे कभी अरमान पूरी जिंदगी
काला सा टीका लगा के दूर की सारी बला
मुश्किलों को कर गई आसान पूरी जिंदगी
प्रेम तुमने जो किया उसका नहीं सानी कोई
हम रहे उससे सदा अनजान पूरी जिंदगी
तुम गई तो प्यार तेरे की लगी कीमत पता
याद आयेगी मधुर मुस्कान पूरी जिंदगी

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
स्वरचित,मौलिक © Copyright

महत्वपूर्ण सूचना

चूंकि हमारी सभी पोस्ट सोशल मीडिया टीम द्वारा डाली जाती हैं, इस प्रक्रिया में अनजाने में किसी अन्य लेखक की रचना मेरे नाम से प्रकाशित हो सकती है। अगर ऐसा कोई मामला आपके संज्ञान में आए, तो कृपया मुझे तुरंत सूचित करें।

हमारी स्पष्ट मंशा कभी भी किसी और की रचना को अपने नाम से प्रस्तुत करने की नहीं रही है, और ना ही भविष्य में रहेगी। रचनात्मक क्षेत्र में पारदर्शिता और सम्मान को सर्वोपरि मानते हुए हम पूरी सतर्कता बरतते हैं।

आपके सहयोग और मार्गदर्शन के लिए सादर आभार।

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कॉफिया आ
रदीफ। नहीं होता।
कोई छोटा बड़ा नहीं होता।
दम्भ कोई बजा नहीं होता
वो ही मिट्टी के मोल बिकता है।
दाम जिस पर लिखा नहीं होता
सोच अच्छी बुरी हो सकती है
मीत कोई बुरा नहीं होता
जो है ज़हनी खयाल ही तो है।
शेर में और क्या नहीं होता।
दर्दे दिल का कभी भी मुद्दा हो
कोई नुस्खा नया नहीं होता।
लड़ना ही है तो तू खुदा से लड़
बंदा कोई खुदा नहीं होता।
आज कह दे जो तुमने कहना है
अन कहा तो कहा नहीं होता
कत्ल करते हैं मुस्कुरा के वो।
कत्ल हर तो ज़फ़ा नहीं होता
पार्थ किन बातों में उलझे हो
उलझने का सिला नहीं होता।

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
स्वरचित,मौलिक © Copyright

Post #3

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122×4
सुनो मैं मुसलसल गज़ल लिख रहा हूँ
मैं अमृत में मथ के गरल लिख रहा हूँ ।
हुए होंगे खट्टे या मीठे से अनुभव
हों फीके यां मीठे सकल लिख रहा हूं
जो भीगे थे गुम सुम अकेले अकेले
वो आंसू रहित दृग सजल लिख रहा हूँ
हां चरने गई अक्ल जिनकी कभी से
मैं उनको ही जहनी विकल लिख रहा हूँ
जो भाषा विचारों का सुंदर हो उद्भव।
वो अदबों का संगम पटल लिख रहा हूँ
जो कीचड़ में पैदा जो कीचड़ में पनपे
उसी को तो चारू कमल लिख रहा हूँ
जो रुकता नहीं एक पल भी कभी भी
वो जीवन का दरिया अटल लिख रहा हूँ
जो मुझको मिला हैसियत से ज्यादा।
उसे कान्हा का मैं फ़ज़ल लिख रहा हूँ
जो पल पल तुम्हारे ख्यालों में गुजरे
वही ज़िन्दगी का असल लिख रहा हूँ
जो सुधियां बनी तेरे मेरे मिलन की
उन्हीं को मुहब्बत विमल लिख रहा हूँ
मुझे क्या गरज कोई बंगले का मालिक।
मेरा घर मैं शाही महल लिख रहा हूँ
ना अपने पराये की पहचान कोई
जो रिश्ता निभे वो सफल लिख रहा हूँ।
लुटे सारी महफिल पढ़े जब वो गज़लें
वो अद्भुत रचयिता अज़ल लिख रहा हूँ
मुहब्बत है उर्दू जुबां से मुझे भी
मैं हिंदी में फिर भी गज़ल लिख रहा हूं।

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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लो राम लला का ख़तम हुआ, सब से लम्बा बनवास
लो राम प्रभु अपने घर लौटे, बाबर हुआ इतिहास
सरयू का वो दिव्य नज़ारा, दूर करे जग का अँधियारा
पलछिन पलछिन झमक उजाला, बिखरा हर्षोल्लास
खील बताशे, सीर खिलोने, वर्क लगी है सोना चांदी
दुकान, दुकान में जा कर देखो, भरा, बिका उल्लास
मेरा दिल है मेरी अयोध्या, सब दरवाजे खोल दिये हैं
कण कण, जन जन बसने वाले, ये भी तो है आवास
दीवारों को लीप पोत के, हर मुंडेर पे धरा उज्जाला
हर चौखट पे सूरज धर कर दिवाली बने ये खास
लक्ष्मी और सरस्वती दोनों, आपस जोर का बैर निभाती
मैं बड़भागा , राम कृपा से, दोनों मेरे पास

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #5

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122×4
सुनो मैं मुसलसल गज़ल लिख रहा हूँ
हैं आंसू रहित दृग सजल लिख रहा हूँ
हां चरने गई घास जिनकी कभी से
मैं उनके जहन में अकल लिख रहा हूँ।।
लिखे होंगे खट्टे या मीठे से अनुभव?
मैं अमृत में मथ के गरल लिख रहा हूँ ।।
जो भाषा विचारों का सुंदर हो उद्भव।
वो अदबों का संगम पटल लिख रहा हूँ
जो कीचड़ में पैदा जो कीचड़ में पनपे
उसी को तो चारू कमल लिख रहा हूँ
जो थमती नहीं एक पल भी कभी भी
वही ज़िंदगी मैं अटल लिख रहा हूँ

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #6

मुसलसल गजल.
1222,1222,1222 1222
मुझे कहता है ये दर्पन इशारों ही इशारों में
समय की आव्रिती झंकृत बसंती सी फुहारों में।
मेरे बालों में चांदी की लटें हर रोज़ कहती हैं
जवानी जा चुकी अब तुम बुढ़ापे के कगारों मेंii
अकेले में मुझे माँ-बाप की भी याद आती है।
जिये भरपूर जीवन जो बहे वक्तों की धारों मेंii
मेरे भीतर का बच्चा कह रहा तू क्यों हुआ पगला
मैं जिन्दा हूँ अभी तुझमें मुझे रख तू विचारों में।1
मेरे नाती मेरे पोते जो खिल-खिल खिल खिलाते हैं।
मैं बर बस डूब जाता हूँ उन्हीं दिलकश नजारों में।i
मैं उत्सुक खोज ने खुद को निकलता साथ जब उनके
वहाँ मिलता मुझे बचपन मेरे चंदा ओर तारों में।i
शरारत और जिज्ञासा मेरी जीवंत हो उठती।
मैं नव ऊर्जित मैं नव स्पंदित मैं झंकृत वाद्य तारों में ii
मुझे गिनने नहीं अब तक के कितने साल हैं बीते
मेरी खुशियां मेरी पूंजी है बाकी सब ख़सारों में।i
मेरे अंदर का बच्चा कह रहा दिल खोल के जी लो
जहाँ भी मिल सके ढूंढो खुशी गमकश बयारों में।

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #7

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खुले आकाश तले
समय बीतते देर ना लगती
वक्त के धारे बह जाते थे
कल की बात है डाल के खटिया
खुले आकाश तले सोते थे
पुरबाई के सुखद हिलोरे
पुर गिनते बहा करते थे
आंख मिचोनी करते चंदा
चंद्र प्रभा दिखते छिपते थे
कभी दिखे आकाश की गंगा
सप्त ऋषि कहीं दिखते थे
मंगल बुध सब सौर जगत के
नभ में चमक दमक रखते थे
छवि मनोरम थी मेघों की
पल पल रूप बदल जाते थे
कभी लगें थे ऊंट की मानिंद
कभी गज बड़े वृहत लगते थे
कभी हवा में किले से दिखते
कभी रूई के फोहे लगते थे
कभी धवल था रूप मनोरम
कभी काले घन भय करते थे
यूंही बस आकाश नापते
गहरी नींद में सो जाते थे
सुबह सुगंधित हवा की उर्मी
तन मन को सहला जाते थे
ऐसी प्यारी सी रातें थीं
यूं पल पल दिन कट जाते थे
धन से खरीदे हुए सारे सुख
बहुत ही तुच्छ निम्न पाते थे

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #8

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जो दिल से है सोचता, बुद्धि से करे जो बोध
कविता उसको वरणती, प्रज्ञेय सुगम सुबोध
कदाम्बरी के आशीष से,वो रचता काव्य सुखन
बूँद बूँद पिये वेदना, कतरों में टांके दुखन
प्रेम पाश के दंश से,आरंजित हैं उसके गीत
कहीं मिलन के रंग हैं,कहीं टूटी प्रीत की रीत
कहीं शब्द बने व्यंग बान,कहीं ईश स्तुति के रंग
कान्हा से कवि लड़ मरे,जो दैविक विपदा प्रसंग

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #9

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Meter 2122,2122,2122,212
बहरे रमल मुसम्मन महजूफ़
काफिया “आ ग”
रदीफ “भी कुछ लोग हैं”
ग़ज़ल
ढूंढते हैं चांद में अब दाग भी कुछ लोग हैं
देख पानी में लगाते आग भी कुछ लोग हैं
हुस्न वाले हुस्न की तारीफ कर भरमा दिये
झूठ सच का गा रहे अब राग भी कुछ लोग हैं
बेखबर सब हांकते हैं अपनी अपनी बात को
बाखबर हैरान, चुप, बेलाग भी कुछ लोग हैं
मां की बोली और, पर हिन्दी में लिखते छंद हैं
आज मौसी से निभाते लाग भी कुछ लोग हैं देखते सब हर शहर में कूड़े के अम्बार हैं
अपने ख़ुद नापाक करते बाग भी कुछ लोग हैं
जानते सब की भरोसा टूटता अक्सर यहां
आस्तीनों में पलें वो नाग भी कुछ लोग हैं
“पार्थ” तुम सच्चे दिल से जो करो करते रहो
गलतियों को ढूंढ़ लेते घाग भी कुछ लोग हैं

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #10

महत्वपूर्ण सूचना


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मीटर 2122 2122 2122 212
गैर मुरदफ गजल यानी गजल बिना रदीफ़ के
क़ाफिया is ई
Topic given was सरहद की रक्षा
पेश है ताज़ा ग़ज़ल
जब कभी सरहद पे दुश्मन ने नज़र डाली बुरी
जल उठा जब भी हिमालय, रण की जब भेरी बजी
जब कभी युद्धों के शोले लीलने लगते गिरी
सरहदों पे जब हिमाकत करने की हिम्मत करी
ले तिरंगा हाथ में साजिश करी नाकाम हर
सरहदों की रक्षा को हुंकार वीरों ने भरी
जीते थे सब हिम शिखर पर मांगता दिल मोर था
भूख ऐसी थी जो केवल जान देकर ही मरी
जो लहू पर्वत ने देखा मांग का सिंदूर था
लाज राखी की थी वो, जो प्राण दे रक्षा करी
“पार्थ” तेरे तीर ही तो प्रेरणा के स्त्रोत हैं
इनका इस्तेमाल रक्षा में ही हो कहते ” हरी “

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Post #11

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मीटर 2122 2122 212
काफिया आं
रदीफ़ absent
गैर मुरद्फ ग़ज़ल
एक ग़ज़ल
बस यही है जिंदगी की दास्तां
हर घड़ी ये ले रही है इम्तिहाँ
खार भी अब खार खा के पूछते
क्या महकते फूल से ही गुलसितां
जिसपे हम मिलके चले थे दो कदम
वो ही तो अपने लिऐ है कहकशां
हाथ भर का फासला ना पट सका
अब मगर रस्ते जुदा हैं जाने जां
हाल कोई भी हो जीना तय हुआ
किस्मतों का बस यही बेहतर बयां
उनको देखा देखता ही रह गया
क्यों नज़र अपनी खुद्दाया बेजुबाँ
साफ गोयी के लिए बदनाम हम
सच्चे हैं रखते नहीं शीरी जुबां
तुम जिसे कहते हो मेरा घर है ये
बिन मुहब्बत वो मगर खाली मकां
दूरियों का जिक्र तुम करते रहो
फासले मत रख दिलों के दरमियां
नफरतों से जब जले सारा शहर
कैसे बच पायेगा तेरा आशियां
“पार्थ”उस्तादों से पूछो क्या कहन
बन्दिशों पे क्यों करो गजले- गुमां

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Post #12

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गजल
मीटर 2122,2122,2122,212
काफिया आ
रदीफ हूं मैं
सब नही पर कुछ तो समझे अब थका हारा हूं मैं
पर नहीं वो जानते खुद हौसला अपना हूं मैं
सोचते ये सोचते जो आ गयी मुझको हंसी
लोग सोचें क्यों अभी पगला हुआ जाता हूँ मैं
इक अधूरी रात की जो बात बाकी रह गयी
उसको रोशन करते करते , खुद हुआ धुंधला हूँ मैं
देख कर इंसान के इंसान पर जुल्मो सितम
अब तो इंसानों की फितरत से डरा जाता हूं मैं
सर हुई मंजिल मगर जो , छिल गये थे मेरे पग
ना समझ समझे की आखिर लड़खड़ा सकता हूं मैं
“पार्थ ” फिर से इक महाभारत का मौका सामने
कुछ कबूतर ही अमन के अब उड़ा पाया हूँ मैं

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #13

गजल
फिर वही बेताल उड़ कंधों पे वापिस आ गया
जिंदगी तो मौन ही है सब मुझे समझा गया
लड़ लो या मिलजुल के जी लो, आप की ये मौज है
सच के आगे झुक विजेता असली वो कहला गया
आज दीवाली पे जितने भी दिए रोशन करो
पर वही दीपक खरा दिल जो उजाला पा गया
शीशे पत्थर दर्दों गम की थी कही गजलें कई
आज लिख के प्रेम परचम हर जगह लहरा गया

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Post #14

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भोर का तारा
रात ढलने को, जब भी आती है
दिखे अम्बर में अतुल नज़्ज़ारा
खुले आकाश में दमक जाता है
लोग कहते हैं भोर का तारा
‌चाँद घटता है चाँद बढ़ता है
‌उसको छूने को दिल मचलता है
‌फूल मुरझा के भी नहीं मरता
‌प्राण बनके ये फिर से खिलता है
‌दीप बुझने का वक़्त हो जाता है
‌उदय होता तब भोर का तारा

‌रात भर के तमस अंधेरों में
‌बनतीआशा के मिटते घेरों में
‌इक उम्मीद जो छुपी रहती
‌कल के होते हुए सवेरों में
‌उन सवेरों को साथ लाता है
‌पहले आता है भोर का तारा
रात ढलने को, जब भी आती है
दिखे अम्बर में अतुल नज़्ज़ारा
खुले आकाश में दमक जाता है
लोग कहते हैं भोर का तारा

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Post #15

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ग़ज़ल
Meter 1222×4
काफ़िया आने रदीफ़ की
मुझे तो पड़ गयी आदत यूं बरबस मुस्कुराने की
छुपा के गम बसा दिल में सदा हंसने हंसाने की
समय पकड़ा नहीं जाता फिसल जाता है हाथों से
कहानी इसकी बच जाती मगर आंसू बहाने की ii
वख्त की चाल को समझो के नौबत ना कभी आये
उठायो दाम उतना ही, न हो मुश्किल गिराने की ii
हमारे दिल के दरवाजे कभी तुम खोल के देखो
वहां तस्वीर है महफूज़ उस गुजरे जमाने की ii
ए पार्थ लिख रहा कब से तू अपने गीत ग़ज़लों को
बची इक हूक है दिलमें इन्हें सुर लय में गाने की ii

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Post #16

Dr रेणु वर्मा के भावों को ग़ज़ल में बांधा है
काफ़िया अल radeef समझता है
बहर 1222×4
कभी गुस्सा कभी उल्फत ये पलछिन पल समझता है
मिज़ा ज़े पुरसी हो तेरी ये आज और कल समझता है
कोई जी लेता जीवन को गुजारा कोई करता है
कोई कहता इसे बगिया कोई दलदल समझता है
समय के फेर को देखो मुसीबत में पड़े रिश्ते
वो चाचा हो या मामा हो वो बस अंकल समझता है
हां जीने के लिए सबका अलग अंदाज है लेकिन
कोई आसां समझता है कोई मुश्किल समझता है
खुशी तो उसकी बांदी है जिसे फिकरों से मुक्ति है
जो धरती पे लगा बिस्तर गगन आँचल समझता है
छुपा ले अपना गम आंखों में आंसू की तरह क्योंकि
ज़माना रोने वालों को निपट निर्बल समझता है
बुराई हो या अच्छाई फ़क़्त नज़रों का है धोखा
ये माली तो खिले हर फूल को उत्पल समझता है

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #17

काफ़िया ए गा रदीफ़ absent। मीटर 1222,1222,1222,1222
पेश है ग़ज़ल के चंद अशार। उम्मीद है आप सब गुनी जनों को ये पसंद आएंगे
इसे जितना बुझायोगे ये उतना ही जलायेगा
मुहब्बत का चुभा नश्तर दिलों के पार जाएगा
ये तकदीरों या तदबीरों का खेला रच दिया कान्हां
नचायेगा वही सब को, वही बंसी बजायेगा
कसम खायी है हमने गर्दिशों में जिंदा रहने की
अरे अब बस भी कर तू और कितना आज़मायेगा
बता दो कब कहा तेरी रज़ा के हम मुखालिफ हैं
जो रच दे तू वही होता ये बंदा रोज़ गायेगा
यहाँ जिसके मुक्कदर में लिखी मां शारदा पूजा
वो दर्दे दिल को छंदों में हमेशा गुनगुनायेगा
हां मुझ को देख कर हंसते, जो तुम भी हंस दिये उस दिन
नहीं तुम को पता था पार्थ, ऐसे गम छुपायेगा

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Happy raksha bandhan day
आज राखी है. Generation next पितृ ऋण चुकाने से भाग रही है. अगला दौर या एक बच्चे का है या निसंतान का है. सो घरों में भाई बहन, मामा massi, बुआ चाचा, ताया का रिश्ता विलुप्त श्रेणी में आने की कगार पर है
इसी सन्दर्भ में चार लाइने अर्ज़ हैं
मनालो राखियां त्योहार, मतलब खोते जायेंगे
यहां आगे सभी हर घर में बालक एक पाएंगे
बच्चा हो या ना भी हो, ये तो है आज का फैशन
बंधे राखी जिन्हे वो हाथ, फिर ना ढूंढ पाएंगे

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #19

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मीटर 1222×4
काफ़िया। अंगा।
रदीफ़ है
शमा जलती रहे कुरबान हो जाता पतंगा है
जो कुर्बानी को दे अभिमान वो मेरा तिरंगा है 11
चमन मेरा जिसे मैं रोज अपना देश कहता हूँ
हिमालय है मुकुट उसका गले का हार गंगा है11
जहां आरण्य में गूँजें दहाड़ें शेर चीतों की
नदी नालों का कल कल गीत, कानों में तरंगा है11
जहां खेतों में कुदरत ने बिछाया जाल सोने का
चरण धोता महासागर, पवन पुरबा उमंगा है 11
करा जीवन को अपने होम आज़ादी की जंगों में
वो करते गर्व होंगे आज हर दिल में तिरंगा है 11

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #20

गैर मुररदफ़ ग़ज़ल
2122 2122 2122 212
काफ़िया अर , रदीफ़ नहीं है
इसकी opening lines(matla) को संजीव सागर जी ने लिखा है जिस आधार पर ये पूरी ग़ज़ल हुई है
मुफ़लिसी का दौर तू बेशक दिखा सबको मगर,
हाथ फैले हर किसी के सामने ऐसा ना करii
तू बड़ा फन कार तेरी शायरी बेजोड़ है
पर नये शायर को तू ख़ुद से कभी कमतर ना कर ii
है पता तुमको ज़माना इश्क का दुश्मन रहा
फिर जनाजा आशिकी निकले तो मत अफसोस कर ii
जब कभी अपने पराये ,में ना कोई भेद हो
जो शहद से भी हों मीठे, चौकसी उनकी तू कर ii
रुत बदलती दिन बदलते, मन बदलने का चलन
जो ना दुख सुख में बदलते उनका तू आदर तो कर ii
ज़िन्दगी तस्वीर है तक़दीर और तदबीर की
जो मिला सो कर्म का फल ,हँस इसे स्वीकार कर ii
ले तिरंगा हाथ में, सीने में हिन्दोस्तान रख
जो गया वो दौर था इस दौर पे अब रश्क कर ii

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #21

ग़ज़ल
बहर 1222,1222,1222,1222
काफ़िया अलते
रदीफ़ हैं
उम्मीद है आपको पसंद आएगी
हमें पहचानते हैं ,पर चुरा नज़रें निकलते हैं
यहां कुछ लोग ऐसे हैं,जो मौसम से बदलते हैं ii
मैं साहिल पे खड़ा हो देखता हूँ ढ़लते सूरज को
दिखे कैसे अंधेरे दूर साहिल को निगलते हैं ii
दिलों में प्यार है तो उस से रौशन कुल ज़माना है
विरह का हो अगर सन्ताप तो पत्थर पिघलते हैii
सितारों की जमी महफ़िल पर चंदा गैर हाज़िर है
हमारे घर की छत पर जगमगा जुगनू टहलते हैं ii
है रंगों को बदलने का बड़ा इल्ज़ाम गिरगिट पर
यहां हर रोज़ ही नेता महारत से बदलते हैंii
यहां सांपों छुछुन्दर का अधूरा खेल है बाक़ी
ना निगले ही उन्हें बनता ना इज़्ज़त से उगलते हैं ii
टटोलो अपने बाज़ू ‘पार्थ’ मत हल्के में लो कुछ भी
सुना है सांप केवल आस्तीनों में ही पलते हैं

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #22

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एक गैर मु रद दफ गजल। By definition इस में रदीफ नहीं होता। मेरा एक humble attempt.
बहर 212. 212 212 212
काफिया is ला
There is no रदीफ
आंख को था गिला दिल ना मिल के मिला
जाम छलका तभी दी नज़र से पिला
झूले सावन के पड़ने से पहले ही तो
बाग में गाती उड़ती फिरे कोकिला
मुझको तब तक हराना ना मुमकिन समझ
जब तलक है खड़ा मेरे सच का क़िला
मेरे आंसू अभी तक ना सूखे सनम
मोम बनती गई पत्थरों की शिला
आज आना तुम्हें सब को मालूम था
बस मुझे ही ना था वो संदेसा मिला
देखलो महफिलें हैं अदीबों सजी
गैर सा है मुरददफ गजल सिलसिला

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #23

काफ़िया म
रदीफ़ लिखेंगे
बहर 2122 x4
जब लिखेंगे गीत तेरी , शान में ही हम लिखेंगे
मुस्कुराके तेरी महफ़िल में ही सारे गम लिखेंगे
l
जब कभी सुलझा ना पाये ,अपने दिल के उलझे ताने
तेरी महफ़िल ,बेबसी के, राज़ सब हमदम लिखेंगे
जो फुहारें, नम पलक को दे रही सावन संदेसा
जितना चाहो उतना बरसो,हम तो फिर भी कम लिखेंगे,
खत को लिखने का सलीका लुप्त होता जा रहा है
अब तो ईमेलों के ज़रिए, हाले दिल प्रियतम लिखेंगे
इतने दीपक जल उठे दीपावली की रात को भी
चांद हो ना हो मगर हम तो इसे पूनम लिखेंगे
बन सकूं मैं एक शायर, तुम बनो मेरी रुबाई
शब्द सारे अक्स तेरे, तेरी सूरत सम लिखेंगे
पार्थ छंदों में बंधो अब ,सोचना तुम छोड़ भी दो
जो लिखेगा भाव उनका दिल से ही उदगम लिखेंगे

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #24

मुसलसल ग़ज़ल
काफिया आज
रदीफ़ शासन के
बहर 1222×4
लो लंका की लगी लंका,छिने हैं ताज शासन क़े
है सड़कों पे फिरे जनता,खुले हैं राज शासन के
कि हंसते खेलते इक मुल्क का भट्टा बिठा डाला
नहीं जो इनको करने थे, करे सब काज शासन के
वो भागे फिर रहे दर दर पनाहों की तलबगारी
उन्हें कर्मों का फल मिलना,जो थे सरताज शासन के
करो खाली सिंघासन को, ये लोगों का है अब फरमान
बहुत से सह लिये हमने, फ़क़त गलगाज़ शासन के
सबक ले लो, जहां वालो, उधारी की मलाई से
रसातल में गिरेंगे सब, हैं जैसे काज शासन के

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #25

ग़ज़ल
क़ाफिया is आई,
रदीफ सुहाना हो गया मौसम
बहर 1222,1222,1222,1222
हवा आई जो पुरवाई , सुहाना हो गया मौसम
लो सावन की घटा छाई सुहाना हो गया मौसम
जहां पे बैठ के कोयल ने मीठी तान छेड़ी है
वो अमराई भी बौरायी, सुहाना हो गया मौसम
ठिठक के रह गई जिसको , जुदा पलकों से होना था
हुई यादों से भरपाई, सुहाना हो गया मौसम
कभी जो कह नहीं पाये, तो लफ्ज़ों ने जिरह छेड़ी
लो कहने की घड़ी आई, सुहाना हो गया मौसम
कभी आंखो से लुढ़के गाल पर दो चार थे मोती
वो कजरी गा के शरमाई ,सुहाना हो गया मौसम
हमें फुरसत मिलेगी , जिंदगी में सोच कब पाये
हुलस के शाम चढ़ आई ,सुहाना हो गया मौसम
तु पार्थ नज़म का हामिल, कहां गजलों के पचड़ों में
मगर जब बहर बन आई, सुहाना हो गया मौसम

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
स्वरचित,मौलिक © Copyright

Post #26

International yoga day पर कुछ दोहे
मुलाहिजा फरमाएं
साधो समय की धार को ,मोड़ न पाएं लोग
लेकिन समय को साधना ,हमें सिखाए योग ii
प्राणायाम विशेष कर, सांसों फूंके प्राण
जिस कपाल भाती किया, उसके सांसों जान ii
शीशासन से शीश में ,रक्त प्रवाहित होय
पवन मुक्त से पेट की, वायू खारिज होय ii
भुजंग से कंधे पेट को, बल मिलता भरपूर
रहती लचक शरीर में, ऐंठन से हो दूर ii
बंद गुदा और पेट का, तीनों लीये सिकोड़
अवरोधन को बल मिले, गुदा रोग का तोड़ ii
नौका, आधा चक्र या, आसन कर लो कोये
सीधी डगर सेहत की,जो नित योगी होये ii

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
स्वरचित,मौलिक © Copyright

Post #27

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काफिया र, रदीफ याद आते हैं
The बहर is 1222X4।
कभी भटके थे अपने आप, रहबर याद आते हैं
अंधेरे छा गए जग में तो दिनकर याद आते हैं
बहुत दिलकश नज़ारा था, तेरे परदेस में लेकिन
मेरी मिट्टी की खुश्बू और सहचर याद आते हैं
कभी था देखता अपनी बनाई उस पहेली को
हुई उस माथा पच्ची के वो मंज़र याद आते हैं
किसे मालूम था कोविड यूं ऐसा हाल कर देगा
लूटेरे था कहा जिनको, वो रह कर याद आते हैं
जो पहले दिन के पहले शो, कभी देखे थे हमने भी
टिकट के वास्ते लड़ते, टिकट घर याद आते हैं
वो फूंके मारती मां के तवे पे हाथ जलते थे
वो सर पे रख के जल की भर के गागर याद आते है
बड़े मासूम से मुख पे, लगा हंसता मुखौटा था
छिपे जो दर्द के डसते, वो अजगर याद आते हैं
ज़माने भर से उल्फत को निभाने की किसे फुरसत
वो भूले बिसरे किस्से ही तो अकसर याद आते हैं
ये रिश्ते नाते सब मतलब के बन जाएं अगर यारो
जो पक्के हैं वो दुश्मन भी तो अकसर याद आते हैं

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #28

जल जीवन जल अमृत कल है
जल से पोषित चल अचल है
जल हिमानी पर संचित गौरव
जल बिन मीन सरीखा पल है
खारा मीठा फीका कड़वा
जल स्वाद तो केवल छल है
रहे हैं उसमें प्राण प्रतिष्ठित
जिस भी ग्रह का मालिक जल है
खिलते फूल हैं उस बगिया में
घास भी रेशम सी मल मल है
जिस में बरसे नीर गगन से
उस जंगल में भी मंगल है
वज्र इंद्र का जल के बल पे
मचे सिंधु में कोलाहल है
सृष्टि को भस्मित कर सकता
नैनो से बहता अविरल है
इसे बचायो व्यर्थ करो ना
इस बिन मरुभूमि निर्जल है
वसुधा की भी सीमित सीमा
छिपा गर्भ में कितना जल है
सिमट रहे हिम नद और नदियां
उठ सकता अपना अन जल है
भारत में तरनी जाल बिछा है
कहां खुदा का ऐसा फजल है
आयो करें प्रण आज धरा से
जल, जननी, तेरा आंचल है

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #29

Bicycle दिवस पर विशेष,raw poem है, काफी गलतियां होंगी जो बाद में सुधारी जाएंगी
आनंद लीजिए
वो भी एक ज़माना था साईकिल पे अठखेली करते थे
विपरीत दिशा से आती आंधी, झूला झूली करते थे
पैर नहीं लगते थे भू पर, कैंची मार चलाते थे
स्कूल छूटते, पटक के बसता, साइकिल टोली करते थे
पवन वेग से उड़ती साइकिल, किले की लंबी ढालो पर
हाथ छोड़ करतब करते थे, मौज रंगीली करते थे
साइकिल तो बस एक थी घर में, सब की बड़ी चहेती थी
कभी कहीं जाना होता था , मांग अकेली करते थे
साइकिल दो तो जा आयेंगे, जहां भी हमको भेजोगे
वरना सौ सौ मार बहाने टालम टाली करते थे
कितनी बार गिरे औंधे थे, फिर भी बाज नहीं आए
झाड़ के कपड़े खिसियाते थे, सूरत भोली करते थे
कभी कभी ऐसा होता था, बाहर नहीं जा पाते थे
गद्दी पे चढ़, खाली पहिया , घूम घुमाली करते थे
अकड़ी गर्दन, ऐंठी काया, साइकिल में था नशा बड़ा
गद्दी क्या थी, सिंघासन था, बैठ के राजा लगते थे
अब तो एसी कार में जाते, मजा नहीं है उस जैसा
जेब से कड़के, खाली बटुआ, शान निराली करते थे
पर्यावरण में योग दान था, ये तो अब समझ आया
अपनी काया को कसरत से शक्ति शाली करते थे

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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महत्वपूर्ण सूचना


चूंकि हमारी सभी पोस्ट सोशल मीडिया टीम द्वारा डाली जाती हैं, इस प्रक्रिया में अनजाने में किसी अन्य लेखक की रचना मेरे नाम से प्रकाशित हो सकती है। अगर ऐसा कोई मामला आपके संज्ञान में आए, तो कृपया मुझे तुरंत सूचित करें।


हमारी स्पष्ट मंशा कभी भी किसी और की रचना को अपने नाम से प्रस्तुत करने की नहीं रही है, और ना ही भविष्य में रहेगी। रचनात्मक क्षेत्र में पारदर्शिता और सम्मान को सर्वोपरि मानते हुए हम पूरी सतर्कता बरतते हैं।
आपके सहयोग और मार्गदर्शन के लिए सादर आभार।

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Post #30

मुसलसल हिन्दी ग़ज़ल
Meter
2122 2122 2122 212
काफिया ऊर रदीफ है
जो बना बारूद वो तो मांग का सिंदूर है
मिल गया मिट्टी में दुश्मन जो बड़ा मगरूर है
धर्म पूछा गोली मारी कौन सा ये धर्म था
तू असुर आतंकी है मदहोश मद में चूर है
छोड़ी जिन्दा पापियों ने नव नवेली दुल्हनें
ये बताने को कि भारत किस तरह मजबूर है
चीत्कारों से दहल के रह गया कश्मीर भी
जो बुझा वो हर दिया सहधर्मिणी का नूर है
मुल्क जो आतंकियों को अपने घर में पालता
सिर्फ खित्ते में नहीं संसार में नासूर है
हिन्द की सेना ने “पार्थ” कर दिया उसको फना
कह दिया के अब से अपना तो यही दस्तूर है

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #31

Morning musings
1222,1222,1222,1222
जवानी की है ये तासीर सीना ठोक के चलती
झुकाना जानती है ये किसी से ये नहीं झुकती
मगर जब भी बुढ़ापा इस पे हो जाता है हावी तो
झुकी काया झुके कंधे तनी भ्रुकटी नहीं रहती

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #32

2122 12 1222
कॉफिया आ
रदीफ। नहीं होता।
कोई छोटा बड़ा नहीं होता।
दम्भ कोई बजा नहीं होता
वो ही मिट्टी के मोल बिकता है।
दाम जिस पर लिखा नहीं होता
सोच अच्छी बुरी हो सकती है
मीत कोई बुरा नहीं होता
जो है ज़हनी खयाल ही तो है।
शेर में और क्या नहीं होता।
दर्दे दिल का कभी भी मुद्दा हो
कोई नुस्खा नया नहीं होता।
लड़ना ही है तो तू खुदा से लड़
बंदा कोई खुदा नहीं होता।
आज कह दे जो तुमने कहना है
अन कहा तो कहा नहीं होता
कत्ल करते हैं मुस्कुरा के वो।
कत्ल हर तो ज़फ़ा नहीं होता
पार्थ किन बातों में उलझे हो
उलझने का सिला नहीं होता।

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #33

जो दिल से है सोचता, बुद्धि से करे जो बोध
कविता उसको वरणती, प्रज्ञेय सुगम सुबोध
कदाम्बरी के आशीष से,वो रचता काव्य सुखन
बूँद बूँद पिये वेदना, कतरों में टांके दुखन
प्रेम पाश के दंश से,आरंजित हैं उसके गीत
कहीं मिलन के रंग हैं,कहीं टूटी प्रीत की रीत
कहीं शब्द बने व्यंग बान,कहीं ईश स्तुति के रंग
कान्हा से कवि लड़ मरे,जो दैविक विपदा प्रसंग

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #34

Meter 2122,2122,2122,212
बहरे रमल मुसम्मन महजूफ़
काफिया “आ ग”
रदीफ “भी कुछ लोग हैं”
ग़ज़ल
ढूंढते हैं चांद में अब दाग भी कुछ लोग हैं
देख पानी में लगाते आग भी कुछ लोग हैं
हुस्न वाले हुस्न की तारीफ कर भरमा दिये
झूठ सच का गा रहे अब राग भी कुछ लोग हैं
बेखबर सब हांकते हैं अपनी अपनी बात को
बाखबर हैरान, चुप, बेलाग भी कुछ लोग हैं
मां की बोली और, पर हिन्दी में लिखते छंद हैं
आज मौसी से निभाते लाग भी कुछ लोग हैं देखते सब हर शहर में कूड़े के अम्बार हैं
अपने ख़ुद नापाक करते बाग भी कुछ लोग हैं
जानते सब की भरोसा टूटता अक्सर यहां
आस्तीनों में पलें वो नाग भी कुछ लोग हैं
“पार्थ” तुम सच्चे दिल से जो करो करते रहो
गलतियों को ढूंढ़ लेते घाग भी कुछ लोग हैं

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #35

मीटर 2122 2122 2122 212
गैर मुरदफ गजल यानी गजल बिना रदीफ़ के
क़ाफिया is ई
Topic given was सरहद की रक्षा
पेश है ताज़ा ग़ज़ल
जब कभी सरहद पे दुश्मन ने नज़र डाली बुरी
जल उठा जब भी हिमालय, रण की जब भेरी बजी
जब कभी युद्धों के शोले लीलने लगते गिरी
सरहदों पे जब हिमाकत करने की हिम्मत करी
ले तिरंगा हाथ में साजिश करी नाकाम हर
सरहदों की रक्षा को हुंकार वीरों ने भरी
जीते थे सब हिम शिखर पर मांगता दिल मोर था
भूख ऐसी थी जो केवल जान देकर ही मरी
जो लहू पर्वत ने देखा मांग का सिंदूर था
लाज राखी की थी वो, जो प्राण दे रक्षा करी
“पार्थ” तेरे तीर ही तो प्रेरणा के स्त्रोत हैं
इनका इस्तेमाल रक्षा में ही हो कहते ” हरी “

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Post #36

मीटर 2122 2122 212
काफिया आं
रदीफ़ absent
गैर मुरद्फ ग़ज़ल
एक ग़ज़ल
बस यही है जिंदगी की दास्तां
हर घड़ी ये ले रही है इम्तिहाँ
खार भी अब खार खा के पूछते
क्या महकते फूल से ही गुलसितां
जिसपे हम मिलके चले थे दो कदम
वो ही तो अपने लिऐ है कहकशां
हाथ भर का फासला ना पट सका
अब मगर रस्ते जुदा हैं जाने जां
हाल कोई भी हो जीना तय हुआ
किस्मतों का बस यही बेहतर बयां
उनको देखा देखता ही रह गया
क्यों नज़र अपनी खुद्दाया बेजुबाँ
साफ गोयी के लिए बदनाम हम
सच्चे हैं रखते नहीं शीरी जुबां
तुम जिसे कहते हो मेरा घर है ये
बिन मुहब्बत वो मगर खाली मकां
दूरियों का जिक्र तुम करते रहो
फासले मत रख दिलों के दरमियां
नफरतों से जब जले सारा शहर
कैसे बच पायेगा तेरा आशियां
“पार्थ”उस्तादों से पूछो क्या कहन
बन्दिशों पे क्यों करो गजले- गुमां

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #37


रदीफ हूं मैं
सब नही पर कुछ तो समझे अब थका हारा हूं मैं
पर नहीं वो जानते खुद हौसला अपना हूं मैं
सोचते ये सोचते जो आ गयी मुझको हंसी
लोग सोचें क्यों अभी पगला हुआ जाता हूँ मैं
इक अधूरी रात की जो बात बाकी रह गयी
उसको रोशन करते करते , खुद हुआ धुंधला हूँ मैं
देख कर इंसान के इंसान पर जुल्मो सितम
अब तो इंसानों की फितरत से डरा जाता हूं मैं
सर हुई मंजिल मगर जो , छिल गये थे मेरे पग
ना समझ समझे की आखिर लड़खड़ा सकता हूं मैं
“पार्थ ” फिर से इक महाभारत का मौका सामने

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Post #38

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गजल
फिर वही बेताल उड़ कंधों पे वापिस आ गया
जिंदगी तो मौन ही है सब मुझे समझा गया
लड़ लो या मिलजुल के जी लो, आप की ये मौज है
सच के आगे झुक विजेता असली वो कहला गया
आज दीवाली पे जितने भी दिए रोशन करो
पर वही दीपक खरा दिल जो उजाला पा गया
शीशे पत्थर दर्दों गम की थी कही गजलें कई
आज लिख के प्रेम परचम हर जगह लहरा गया

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Post #39

जो सपना नींद में देखा, वो सपना क्या ही सपना है
जो देखें फिर ना सो पाएं, सच्चा वो ख्वाब अपना है
हमें मिलके बनाना देश को सिरमौर दुनिया का
ए पी जे तेरा सपना अब हमारा सब का सपना है

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Post #40

मीटर 1222×4 क़ाफ़िया अल रदीफ़ करने को निकले हैं
ग़ज़ल
ये मसले से सभी मसलों का हल करने को निकले हैं
परिंदे जो बचे ज़िंदा क़त्ल करने को निकले हैं
दिखावा है अमन का पर तिजारत जंग है इनकी
ये बारूदों को अब अपनी फसल करने को निकले है
कभी गाते थे गीतों में, कभी नज़मों में लिखते थे
मगर कुछ दिन से दर्दे दिल ग़ज़ल करने को निकले हैं
हमें विश्वास था की वो भरोसे को ना तोड़ेंगे
मगर वो ही निशाख़ातिर से छल करने को निकले हैं
सफाई है बड़ा अभियान शहरों में बजा डंका
लो कूड़े के पहाड़ों को विमल करने को निकले हैं
कभी सोचा ना था, ये दल नहीं दलदल बड़ी भारी
उसी दल दल को ये मिलके कमल करने निकले हैं
जो बहती धार सा चंचल कभी भी टिक नहीं पाता
वही दिल बाँध पल्लू में अचल करने को निकले हैं
जमालों से कमालों को सदा अंजाम देते हैं
ये हँस के हर बड़ी मुश्किल सरल करने को निकले हैं

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #41

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शरद पूर्णिमा
शरद कौमुदी, बिछी चांदनी पल पल प्रेम से जी लो
सोमांशु बन बरस रही अँजोरी जी भर पी लो
गोपेश्वर बन महा देव करते धा तिन थइआ
राधा के संग नाचे कान्हा अद्धभुत रास रचइआ
इंद्र ऐरावत, वज्र सभी ले इंद्र लोक को धाये
स्वर्ग से सुन्दर रमनी बसुधा गीत शरद के गाये
लक्ष्मी अवतरित धरती पर करतीं धन धान्य की बर्षा
चहक उठा मानव मन,देखो प्रेम सुधा बन सरसा
सर सरनी में आज भरा है , प्रेमामृत का पानी
शरद चांदनी पी के पी संग जोगन भई दीवानी
ओस कनो से भीग सुमन चातक का जी ललचाये
चंद्रलोक की चंद्र चन्द्रिका भाव विहिल कर जाये
आश्विन की ये पुण्य पूर्णिमा आज चांदनी बरसे
नेह के मेह से स्वर्ग धरा जिसे देव लोक भी तरसे ( अँजोरी is चांदनी )

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #42

जल जीवन जल अमृत कल है
जल से पोषित चल अचल है
जल हिमानी पर संचित गौरव
जल बिन मीन सरीखा पल है
खारा मीठा फीका कड़वा
जल स्वाद तो केवल छल है
रहे हैं उसमें प्राण प्रतिष्ठित
जिस भी ग्रह का मालिक जल है
खिलते फूल हैं उस बगिया में
घास भी रेशम सी मल मल है
जिस में बरसे नीर गगन से
उस जंगल में भी मंगल है
वज्र इंद्र का जल के बल पे
मचे सिंधु में कोलाहल है
सृष्टि को भस्मित कर सकता
नैनो से बहता अविरल है
इसे बचायो व्यर्थ करो ना
इस बिन मरुभूमि निर्जल है
वसुधा की भी सीमित सीमा
छिपा गर्भ में कितना जल है
सिमट रहे हिम नद और नदियां
उठ सकता अपना अन जल है
भारत में तरनी जाल बिछा है
कहां खुदा का ऐसा फजल है
आयो करें प्रण आज धरा से
जल, जननी, तेरा आंचल है

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #43

छत की रातें
समय बीतते देर ना लगती
वक्त के धारे बह जाते थे
कल की बात है डाल के खटिया
खुले आकाश तले सोते थे
पुरबाई के सुखद हिलोरे
पुर गिनते बहा करते थे
आंख मिचोनी करते चंदा
चंद्र प्रभा दिखते छिपते थे
कभी दिखे आकाश की गंगा
सप्त ऋषि कहीं दिखते थे
मंगल बुध सब सौर जगत के
नभ में चमक दमक रखते थे
छवि मनोरम थी मेघों की
पल पल रूप बदल जाते थे
कभी लगें थे ऊंट की मानिंद
कभी गजराज वृहत लगते थे
कभी हवा में किले से दिखते
कभी रूई के फोहे लगते थे
कभी धवल था रूप मनोरम
कभी काले घन भय करते थे
यूंही बस आकाश नापते
गहरी नींद में सो जाते थे
सुबह सुगंधित हवा की उर्मी
तन मन को सहला जाते थे
ऐसी प्यारी सी रातें थीं
यूं पल पल दिन कट जाते थे
धन से खरीदे हुए सभी सुख
उनके आगे छोटे दिखते थे

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #44

पर्यावरण दिवस पर विशेष
मनाते हर वर्ष इसको, सबक कब कोई लेते हैं
इसे बरबाद करने के, सारे कर्म करते हैं
धुआं हो के जलेगी रेणुका दिन दूर ना समझो
इसी जलवायु से खिलवाड़ के हम दंड भरते हैं
हैं काटें बरगदों को , छांव की देते दुहाई हम
करें जंगल से जंग अस्तित्व उनका खत्म करते हैं
पिघलते हिम शिखर क्रंदन करें सुन लो खामोशी से
नज़र अंदाज़ करने का जुर्म हर रोज़ करते हैं
उठें सिंधू में उद्घूर्ण, उगलते आग पर्वत हैं
कभी अचला लगे चलने, विकट संघार करते हैं
संभल सकते तो संभल जाओ, समय की चाल को समझो
क्यों त्रिनेत्र के खुलने का हम इंतजार करते है
ये मानो आखरी मौका है धरती को बचाने का
नहीं तो पाप का फल बाद में संतान भरते हैं

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #45

यादों के झरोखे से
अमरीका मे रंगभेद दंगों पर चार लाइने अर्ज़ हैं
धू धू कर के जल उठा, घर में छिड़ा संग्राम
रंगभेद का भूत फिर, देने आया पैगाम
बचलो ट्रम्प बचालो , ये तेरी साख पे बट्टा
अमरीकी अस्मिता चाटेगा ये तिलचट्टा

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Post #46

Have tried to add some couplets to शबीना अदीब शायरी,hope you will enjoy it
मतला पेश है
ख़ामोश लब हैं झुकी हैं पलकें दिलों में उल्फत नई-नई है
अभी तक़ल्लुफ़ है गुफ़्तगू में अभी मोहब्बत नई-नई है
शबीना अदीब
जब पाबोसी की वो दुनिया, छिनती है तकलीफ होती
कभी सुनाने की थी आदत, सुनने की आदत नई नई है
कभी तो अंदाजे बयां में, तर्क की ताकत को लाओ
तुम्हारी खफगी से यूं लगता, तुम्हारी हालत नई नई है
कभी तो खुदसे बाहर निकलो, कभी तो देखो इस जहां को
पूर्वाग्रह में फंसे हुए हो , हवा भी रूख को बदल गई है
कौन सच्चा,है कौन झूठा, तेरे मेरे मन को पता है
मेरा खाता मेरे अंदर, तेरे अंदर भी बही है
आयो पीछे मुड़ के देखें, बातें करलें गुलो चमन की
प्रीत पल संजो के रखें, घृणा तो अब से अजल हुई है
माना कज़ा के दिन सभी को, खुदा से मिलना है जरूरी
इससे पहले खुदा से डर के , जीते रहना सही सही है
खुद से गुस्सा हम हैं रहते, औरों में खोटों को खोजें
मुझसे बुरा ना कोई जग में, पीरों की ये कही हुई है
पाबोसी is पैर चूमना (तलवे चाटना)

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #47

©
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Mothers DAY
ये मां मचडी का कैसा दिन, सारे दिन तो उसी के हैं
जो औलादों पे हैं वारे , वे पल पल तो उसी के हैं
प्यार को उसके परिभाषित ,कैसे करें दो लफ्जों में
अक्षर भी तो उसी के हैं, ये सारे छंद उसी के हैं
वो कान्हा भी बांधे उसके तोड़ ना पाए पाशों को
खुली हुई छूटें भी उसकी ,बंधन भी तो उसी के हैं
शरारत करने पर जो मारें,अकसर खानी पड़ती हैं
वो चांटे भी तो उसके हैं, वो आंसू भी उसी के हैं
ज़माने के सितम से बच जाए उसका परिवार रहे बसता
वो सच्चे तर्क भी उसके है, वो झूठे तर्क उसी के हैं
ये मां संसार गमन को अपने, कभी ना पूरा कर पाई
जो कण कण में हैं अनुरागित, वो बिंबित मर्म उसी के हैं
ए”पार्थ ” तुम ने तो देखा है, ममता की हद को पार हुए
अर्जुन भी तो उसी के हैं, अभागे जो कर्ण उसी के हैं

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Post #48

सूर्यास्त
अहान,
ये कभी अस्त नहीं होता
चलने में व्यस्त सदा रहता
कभी उत्तर में कभी दखन में
कभी पूरब में कभी पच्छम में
तम (अंधेरा) का शत्रु घनघोर बड़ा
तम पीने को हर वक्त अड़ा
दिखता है मानो डूब गया
लगता है हम से ऊब गया
कहता है अब तो सो जाओ
निद्रा सपनो में खो जाओ
मैं आगे की सुध ले आयूं
सब को गंतव्य (target)बता आयूं
कल सुबह मिलेंगे ऊषा संग
देखूंगा तुम्हारे बदले ढंग
मेरे आने से पहले ही
कुछ दौड़ धूप तुम कर लेना
कुछ लोम, विलोम, योगा बंद
कुछ जिम में कसरत कर लेना
तुम स्वजीवन का गणित बुनो
मैं ऋतुओं का गणित लगा आयूँ
सब देवों से इक बैठक कर
उनका काम समझा आयूं
मेरे आने से पहले सुन
मुर्गा तो बांग सुना देगा
कोयल भी तान सुनाएगी
चिड़ियों का झुंड हवा होगा
पश्चिम के अंधेरों का गम ना कर
कल पूरब में सब मिलते हैं
ये बुद्धिमान जन समझाते
यून चक्र सृष्टि के चलते हैं

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #49

झंझानिल ( तूफान के बाद बारिश)
दम साधे अवनि खड़ी, सूरज का वेग प्रचंड
भीषण गर्मी यूं पड़ी, जियूं कुदरत देती दंड
सहमे पादप जड़ हुए, पत्ता भी हिले न एक
पशु पक्षी व्याकुल हुए, क्षिप्त, विक्षिप्त विवेक
तभी दूर क्षितिज में खिंची, काली सी इक लीक
प्रकृति अपने आप में, कुछ करने चली थी ठीक
देखते देखते देख लो, वो रेखा बनी विशाल
वरुण वेग बढ़ता गया, बवंडर बना विकराल
पत्तों से उड़ने लगे, बन विज्ञापन पट पतंग
जड़ से उखड़े पेड़ भी देखो कुदरत के रंग
खंबे साएं साएं करें, दिन में हुआ अंधकार
तड़पे सिर पे दामिनी, सब देख रहे लाचार
बादल उमड़े, बादल गरजे, बादल बरसे मेह
पानी की हर बूंद से , तृप्त हो गई देह
सौंधी सौंधी उभर गई, मिट्टी से खुशबू
धुले धुले वन वन्य की उजली हो गई रूह
मौसम कभी न एक सा, रहे करो विश्वास
मुश्किल घड़ी में हर समय अच्छे दिन की हो आस

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #50

महत्वपूर्ण सूचना]

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यादों के झरोखे से
कोरोना काल में जब शराब की दुकानें खुली
चार लाइन अर्ज़ हैं.
भाड़ में दो गज की दुरी,
भाड़ में जाये देश
खोल दुकान शराब की
सरकारों किया कलेश
सरकारों किया कलेश,
ना संकट को गहरायो
करो ना ये खिलवाड़,
करोना ना भड़कायो

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #51

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एक गिलहरी, भरी दुपहरी
ठिठकी ठिठकी ठहरी ठहरी
धमाचोकड़ी खूब मचाती
पल पल बदला रंग दिखाती
गिटक पकड़ के दो हाथों में
चुर चुर फिर दांतों से खाती
पूंछ बना के झंडे जैसी
बाग बाग फिरती लहराती
छोटी छोटी आंखें देखो
कैसे पल पल मटकाती है
डाल डाल पे उसका डेरा
पेड़ों की वो शहजादी है
चिड़ियों के संग हो अठखेली
मानो उनकी वही सहेली
चोंच नुकीली वाला कौवा
उसको लगता थोड़ा हौवा
कूकर को भी खूब भगाती
छेड़ विटप पर वो चढ़ जाती
दौड़ धूप कोई भी कर ले
कभी किसी के हाथ ना आती
डाल के देखो चोगा उसको
पहले पहल तो वो सकुचाती
फिर थोड़ा सी करती हिम्मत
फिर लौटे डरती शर्माती
एक बार विश्वास जीत लो
फिर तो हाथों में आ जाती
प्रेम पिपासी यही गिलहरी
चटकी मटकी ठहरी ठहरी

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #52

Dedicated to “lovely “nature
ये रंगों की बहार है, ये कौन चित्र कार है
किसकी है ये मोहनी, ये कौन कलाकार है
सुबहो सुबह ह्रदय में जो मीठी तान छेड़ता
है मन मयूर नाचता , ये प्रेम रस संचार है
जो कर्ण रस घोल दे, पल बड़े अनमोल दे
ये वेदों की ऋचाएं है,गीता का भी सार है
ये फलों की मिठास है, ये फूल में छठा भरे
बादलों को झूला रही, मदोन मद बयार है
ये कू कूहक कूकता , मधु मधुर संगीत है
जो एक साथ बज उठे,ये साज की झंकार है
ये आंसू जो बरस गये जो सीप को तरस गये
ये मोतियों की माल बन, अप्सरा श्रृंगार है
ये पूरी क़ायनात में, जो “पार्थ ” ढूंढ ता रहा
ये बुद्धू बुद्ध मे मचा, प्यार का तकरार है

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #53

कदम
हर कदम छोटा बड़ा
जा धरा पर जो पड़ा
अपने निशां है छोड़ता
इतिहास को है मोड़ता
वो मंज़िलों को सर करे
चंदा की दूरी से परे
असंभव पे संभव छाप दे
संभव को जो जा नाप दे
समुद्र की गहराईयां को
हिम शिखर की ऊँचाईयां को
जिसमे बौना करने का दम
वही तो मानव का कदम
छाले ना जिसको रोकते,
बाधा ना जिसको टोकते
छोटा है जिसको फासला
मनुष्य का है ये हौसला
ये कभी रुकते नहीं
ये कभी झुकते नहीं
इन से है मानव का दम
यही तो मानव के कदम

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #54

Poet I adore
वो लुधियाने का साहिर था
वो अपने फन का माहिर था
वो चुन चुन नज़्मे लिखता था
वो गहराई तक चुभता था
वो खुद से जंगें लड़ता था
वो विरह की ग़ज़लें पढ़ता था
क्रांति का बिगुल बजाता था
शब्दों के तीर सजाता था
तल्ख, तलखियाँ, शहनाईयां
वो युद्ध में जलती परछाईयां
खुद क़ो पल दो पल कहता है
दशकों से दिल में रहता है
उसका कौशल जग जाहिर था
वो जादूगर वो साहिर था

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #55

जो दिल से है सोचता, बुद्धि से करे जो बोध
कविता उसको वरणती, प्रज्ञेय सुगम सुबोध
कदाम्बरी के आशीष से,वो रचता काव्य सुखन
बूँद बूँद पिये वेदना, कतरों में टांके दुखन
प्रेम पाश के दंश से,आरंजित हैं उसके गीत
कहीं मिलन के रंग हैं,कहीं टूटी प्रीत की रीत
कहीं शब्द बने व्यंग बान,कहीं ईश स्तुति के रंग
कान्हा से कवि लड़ मरे,जो दैविक विपदा प्रसंग

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #56

लिखी जब पहला लॉक डाउन लगा
आयो हर चौखट पर
रख दें एक दीपक
खींच दें एक
लक्ष्मण रेखा
ताकी कोई करोना
लांघ न सके हमारी देहरी
लील लिया जिसने
विश्व की महा शक्तियों को
घुटनों पर ला दिया जिसने
पैसे और ताकत का दंभ
उसी तूफान के सामने
हमें जलानी है जीवन की लौ
इस बवंडर को देना है प्रमाण
जीवन की निरंतरता का
उसकी शश्वता का
उसकी अजय शक्ति का
ना हारे हैं न हारेंगे
ज़िद पकड़ बैठे हैं
हर हाल में जीने की ज़िद
करोना को हराने की ज़िद
उसकी विनाश की ज़िद को तोडने की ज़िद
बस लांघनी नहीं है हमें
वो लक्ष्मण रेखा
वो जीवन रेखा

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #57

जब भी दर्द भरा हो दिल में मीठी सी मुस्कान खिला दो
मन की पीड़ छुपा के रखो, यूँ ही ना संसार रुला दो
रोना तो बारिश में रो लो, रिमझिम रिमझिम नीर बहा लो
बूँद वेदना वो सच्ची जो, मुक्तक बन पलकों मे सजा लो
डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ “
मुक्तक is मोती

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #58

Locking horns with the best
दो गुलज़ार की और दो अपनी मिला के चार लाइने अर्ज़ हैं
सब को मालूम है बाहर की हवा है क़ातिल
यूँ क़ातिल से उलझने की ज़रूरत क्या है ।
-गुलज़ार
निकलना ही है तो मास्क पहन के निकलो
खुले मुंह नज़दीकियों की ज़रूरत क्या है

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #59

ठंड है प्रचंड , मानो देवता दें दण्ड
पारा शून्यता की ओर, छाई धुंध घनघोर
दिन लगे जेसे रात, भिड़ी कारों की बारात
प्रभु तुने तो हद करदी, हाय सर्दी की ये सर्दी
लेके दुबको रजाई, इसी में ही है भलाई
चाय का बनाओ मग, उसका मज़ा है अलग
कोई हीटर लगाए, कोई आग को जलाए
सब ने हिल जुल है कम करदी, हाय सर्दी की ये सर्दी
सारे स्कूल हुऐ बंद , ये है बच्चो की पसंद
नहीं मम्मी से लड़ाई, घर में करें पढ़ाई
आई बच्चों की लो टोली, गली गली में ठिठोली
लो प्रशासन ने मौज कर दी, हाय सर्दी की ये सर्दी
कोइ भी जब बोले, बनते भाप के हैं गोले
दांत किट किट करते, हाथ पांव हैं ठिठुरते
मौसम हो गया दबंग, रवि बादलों में बंद
ठंडी धूप भी लगे फर्जी, हाय सर्दी की ये सर्दी

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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POST #60

इस सन्दर्भ में चार लाइने अर्ज़ हैँ
डॉक्टर बिधान चंद्र का जन्मदिन है खास
डॉक्टर्स दिन के रूप में ये अब है इतिहास
B C Roy अवार्ड भी जिसको होता प्रदान
डॉक्टरों की बिरादरी में उसकी ऊँची शान

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #61

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घंटो बहस और लडाई के बाद
एक तन्हा रात में तन्हाई के साथ
आँख बंद कर, ढूँढने निकला सुकून,
बस चबाता रहा रात भर नाखून
मेरा रुदन, मेघ गर्जना में खो गया
आसमानों ने देखा मैं एकाकी हो गया
मेरी पलकों में कैद,आँसू ना सरसे
उस रात मैं ना बरसा, बस बादल ही बरसे
कोई ना समझा उस एकांत रात का एहसास
वो अमिट फासले, चाहे लेटे थे पास पास
मन में ख्यालों का जवार भाटा उफनता रहा
विद्रोही मन मेंं इक बवंडर पनपता रहा
क्या जीवन युद्ध है, हारना और जीतना है
जीत कर टूटना है , और हार कर बिखरना है
ये द्वंद बिना थमे रात भर रपीहापी
विविध, विचारों का काफिला सजताजीरहा
पौ फटते फटते उलझने सुलझने लगी
मन में उठते दवानल की लपटें बुझने लगी
सुबह की पहली किरण ये संदेश साथ लाई
ज़िंदगी तो तीर्थ यात्रा है ना की कुरुक्षेत्र की आसा, बाकी सब गौण है
मैं उठा और ज़िंदगी को बाहों में भर लिया
अपनी valentine को फिर से valentine कर लिया

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Post #62

दिल्ली तमिलनाडु ने, दे दी चीन को मात
दोनों राज्यों खूब बढ़ा, करोना का उत्पात
इधर सियासी पार्टियों में जंग छिड़ी है
भूल करोना दे रहे इक दूजे को शह मात

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Post #63

दम साधे अवनि खड़ी, सूरज का वेग प्रचंड
भीषण गर्मी यूं पड़ी, जियूं कुदरत देती दंड
सहमे पादप जड़ हुए, पत्ता भी हिले न एक
पशु पक्षी व्याकुल हुए, क्षिप्त, विक्षिप्त विवेक
तभी दूर क्षितिज में खिंची, काली सी इक लीक
प्रकृति अपने आप में, कुछ करने चली थी ठीक
देखते देखते देख लो, वो रेखा बनी विशाल
वरुण वेग बढ़ता गया, बवंडर बना विकराल
पत्तों से उड़ने लगे, बन विज्ञापन पट पतंग
जड़ से उखड़े पेड़ भी देखो कुदरत के रंग
खंबे साएं साएं करें, दिन में हुआ अंधकार
तड़पे सिर पे दामिनी, सब देख रहे लाचार
बादल उमड़े, बादल गरजे, बादल बरसे मेह
पानी की हर बूंद से , तृप्त हो गई देह
सौंधी सौंधी उभर गई, मिट्टी से खुशबू
धुले धुले वन वन्य की उजली हो गईं रूह
मौसम कभी न एक सा, रहे करो विश्वास
मुश्किल घड़ी में हर समय अच्छे दिन की हो आस

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #64

दो गिद्धों मैं देखलो कैसी मची है होड़
देख इस तस्वीर को,यही बड़ा निचोड़
एक हैभूखा मास का नोच नोच के खाये
दूसरा नोचे आत्मा, तन मन को दे तोड़
कैमरा ले बैठा गिद्ध, सोच सोच हर्षाये
दुर्लभ इस तस्वीर का क्या गुना घटाया जोड़

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #65

हे देव तुम्हारे हाथों में,
पूरे जीवन की गाथा है
इंद्र धनुष के रंगों से,
तू इसमे रंग जमाता है ।
मुझे पता नहीं क्या करना है,
कैसे जीवन पथ चलना है।
तुम पलों के रंगीं धागों से,
इसको बुनता जाता है
तुम दर्द कभी भर देते हो,
मैं दंभ में बौरा जाता हूं,
तुम बार बार समझाते हो,
मैं कहां समझ कुछ पाता हूं।
मेरी दृष्टी तन को देखे
तू अंतर मन का ज्ञाता है
मुझे नाक से आगे ना दिखता,
तू द्रष्टा दूर कहाता है हे देव तुम्हें तो पता है सब,
किस चीज की मुझे जरूरत है। कब अंधकार की काली तमस,
कब चाहत चांद या सूरज है।
आकार, विकार, साकार सभी,
जीवन के तू ही घड़ता है
तु स्रष्टा, सर्ग, सृजन कर्ता,
जीवन का गणित लगाता है,। कल क्या होगा, क्या ना होगा, तुम को ही मालूम महा देव
जब तक सांसों का चलन यहां, तब तक देह है जीवंत जीव।
तुम जन्म मरण से आगे हो
तुम चिरंतन हो तुम काल जया
तुम ही जानो आगे क्या है,
हिरण्य गर्भा क्या पाता है
हे रवि कर के अदम्य तेज
चंदा की महकी शीतलता
हे भाग्य मेरा बुन ने वाले
जब तक ना रुके तेरा करघा
अंत्य विदा का क्षण आए
बेशक ना मुझको कुछ बतला
रंगी, सतरंगी, जो भी बुना
आखिर जाहिर हो जाता है
बस समझ मुझे इक आई है
मैं कर्म करूं तुम पर छोडूं,।
हे मेरे जीवन के शिल्पकार,
जो बुने उसे स्वीकार करूं।
जो योजित करता मेरे लिए,
वो मेरे लिए हितकर होगा।
इस अंतिम सत्य को मान हर इक
चरणों में शीश नवाता है

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Post #66

देश के शराबियों को मेरा सलाम
चार लाइन अर्ज़ हैँ
टल्ली हो मतवाले बोले, क्यों हम पे हो भड़के
अर्थ व्यवस्था हम से चलती, मिस्टर अक्ल के कड़के
मिस्टर अक्ल के कड़के, हमें ना तुम अब रोको
गिरे पड़ें, मिलें नाली में, इक ताली तो ठोको

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Post #67

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Only 200 VVIP’s will take part in holy dip at brahamsarover. They could have avoided, because where common man is left out gods cannot be happy
चार लाइने अर्ज़ हैँ
नभ में भानू चमकता, इक सी बिखरता धूप a
सर डुबकी से पुण्य एक, क्या जनता क्या भूप
ब्रह्मसरोवर देखता, सत्ता का ये उन्माद
राम के घर सब एक हैँ, कोई नहीं अपवाद
सर hear means तालाब

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Post #68

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निर्मल सीता रमन जी, कुछ तो बदलो ढंग
मिडिल क्लास की सुधी भी आप के काम का अंग
गठरी टैक्स के बोझ की क्यों पीठ पे दीनी लाद
कमर झुका दूहरी करी,करें किसे फरियाद
 

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Post #69

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निशब्दों के संसार को , सुन, पढ़ सकता कौन
मित्र वही जो जांच ले, मेरे होंठों का मौन
आंख में ठिठकी बूँद में, भांप सके
जो भाव
यही तो दिल की प्रीत है, बाकी सब कुछ गौण
 

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Post #70

नवरात्रे शुरू हो गये, मां तुमको पूजा जायेगा
तेरे दर पे हर कोई आके अपना शीष झुकायेगा
सब व्यसनों को नवरात्रों में तज देगा तुम देखोगी
सारा साल पापों की गठरी, अपनी खूब बढ़ाएगा
देखना मां ये गली गली की नुक्कड़ पे तैनात रहेगा
आते जाते फब्ती कसके, तुमको खूब रुलाएगा
शैल पुत्री के पावन रूप का इससे क्या लेना देना
अपनी हवस का ये दरिंदा उसे शिकार बनाएगा
तुम को धरती पर आने से, ये ही रोक लगाता है
पता चला तुम आने वाली, भ्रूण में तुम्हें गिरायेगा
बाकी दिन पेर्रों की जूती, बस ये नौ दिन तेरे हैं
असली सच ये इस धरती का, सारा साल भरमायेगा
बाकी सारे रूप छोड़ दे, इनकी अभी जररूरत ना
कलयुग में रणचंडी रूप ही,मनुजों से तुम्हें बचाएगा

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #71

ना रुकता है कभी कोई
दुनिया से जिसको जाना
बदले हैं उसने कपड़े,
किसी और जहाँ रवाना
रंग मंच के खिलाडी,
अपना किरदार निभाते
होता जो पार्ट पूरा
चुपके से चले जाते
पर्दा के गिरने पर भी
ताली जो बज रही है
यही था उसका हुनर
यही तो था फसाना
ना रुकता है कभी कोई
दुनिया से जिसको जाना
ॐ शांती

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Post #72

ना पाने की ख़ुशी है कुछ ना खोने का ही कुछ गम है
ये दौलत और शोहरत सिर्फ कुछ ज़ख्मों का मरहम है
अजब सी कशमकाश है रोज़ जीने रोज़ मरने में
मुकम्बल जिंदगी तो है मगर पूरी से कुछ कम है
 

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #73

©
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On horse (नेता )trading in politics every party is the culprit, interpreting the black deeds as political need. Here are some suggestions for FM. If implimented will generate good revenue and make the deals transparent.

इसी सन्दर्भ में चार लाइने अर्ज़ हैँ
नेताओं की मंडी में जब खरीद फरोख्त की जाये
28 परसेंट gst का भुगतान तुरंत लिया जाये
काले धन का काले धंधों में हो अब कोई रोल नहीं
बिकते नेता की आमदनी पर इनकम टैक्स जड़ा जाये

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #74

यम भी गच्चा खा गये, ना कर पाये पहचान
कैसे किस को ले चलूँ, मास्क में है इंसान
माथा पच्ची खूब कर फ़ेसला कियो यमराज
Covid उसे उठाई लियो, जो बिना मास्क के आज

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Post #75

ये सुन के अच्छा लगा, डॉक्टर प्रभु समरूप
पर हकीकत और है, सरकारी तंत्र अनुरूप
सियासत, मीडिया मिलके, किया है सत्या नाश
वैदक मिलके मार दी, अब कौन उठाये लाश

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Post #76

ये धरती अपनी है ये अपना ही तो आशियाना है
इसे रहने के लायक हम ने मिलके ही बनाना है
कसम खायो कि इसको प्लास्टिक से मुक्त कर देंगे
पकड़ हाथों से हाथों को निरापद जग बनाना है
 

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Post #77

ये बता तेरे इलाके क्यों मरा करोना मरीज़
दुनिया मरती तो मरे, बस आंकड़े उनको अज़ीज़
ये लड़ाई लड़ने से पहले हार की ताबीर है
ऐसे अफसर बन गये खुदाया जनता के नसीब
मौत के छुपा आंकड़े ये बनना चाहते टार्ज़न
लाशों के अम्बार लगने के हम बहुत करीब
सच धरती फाड़ के समुख खड़ा हो जायेगा
“पार्थ ” भी कहता यही, कहते ये ही सब अदीब

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Post #78

Mothers DAY


ये मां मचडी का कैसा दिन, सारे दिन तो उसी के हैं
जो औलादों पे हैं वारे , वे पल पल तो उसी के हैं
प्यार को उसके परिभाषित ,कैसे करें दो लफ्जों में
अक्षर भी तो उसी के हैं, ये सारे छंद उसी के हैं
वो कान्हा भी बांधे उसके तोड़ ना पाए पाशों को
खुली हुई छूटें भी उसकी ,बंधन भी तो उसी के हैं
शरारत करने पर जो मारें,अकसर खानी पड़ती हैं
वो चांटे भी तो उसके हैं, वो आंसू भी उसी के हैं
ज़माने के सितम से बच जाए उसका परिवार रहे बसता
वो सच्चे तर्क भी उसके है, वो झूठे तर्क उसी के हैं
ये मां संसार गमन को अपने, कभी ना पूरा कर पाई
जो कण कण में हैं अनुरागित, वो बिंबित मर्म उसी के हैं
ए”पार्थ ” तुम ने तो देखा है, ममता की हद को पार हुए
अर्जुन भी तो उसी के हैं, अभागे जो कर्ण उसी के हैं

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #79

ये मेरी पगड़ी
ये सब की पगड़ी
ये सब की इज़्ज़त
ये सब से तगड़ी
इस की खातिर
ये दुनिया झगड़ी
ये गर उछले तो
इज़्ज़त ले उखड़ी
ये मेरी पगड़ी
ये सब की पगड़ी
 

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Post #80

Dedicated to “lovely “nature
ये रंगों की बहार है, ये कौन चित्र कार है
किसकी है ये मोहनी, ये कौन कलाकार है
सुबहो सुबह ह्रदय में जो मीठी तान छेड़ता
है मन मयूर नाचता , ये प्रेम रस संचार है
जो कर्ण रस घोल दे, पल बड़े अनमोल दे
ये वेदों की ऋचाएं है,गीता का भी सार है
ये फलों की मिठास है, ये फूल में छठा भरे
बादलों को झूला रही, मदोन मद बयार है
ये कू कूहक कूकता , मधु मधुर संगीत है
जो एक साथ बज उठे,ये साज की झंकार है
ये आंसू जो बरस गये जो सीप को तरस गये
ये मोतियों की माल बन, अप्सरा श्रृंगार है
ये पूरी क़ायनात में, जो “पार्थ ” ढूंढ ता रहा
ये बुद्धू बुद्ध मे मचा, प्यार का तकरार है

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #81

मौसम पे लिखी चार लाइने सभी मित्रों की नज़र हैं
ये वर्षा का मौसम ये गर्मी का मौसम, नेकी का कोई मौसम नहीं है
बगिये में खिलते गुलाबों का मौसम, चेहरों के खिलने का मौसम नहीं है
ये पगलाया मौसम, ये बौराया मौसम, उन से बिछड़ने का मौसम नहीं है
ये डाली से गिरते पत्तों का मौसम, नज़रों से गिरने का मौसम नहीं है

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #82

चार लाइने अर्ज़ हैं
ये अमरीकी सेब है, सेब नहीं ये किन्नौर से
चीनी करोना का जबाब ये पूरी दुनिया ओर से
आत्म निर्भर, ग्लोबल लोकल, चाइना से टकराएगा
चोट लगेगी वित्तीय करारी, तभी समझ में आएगा

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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चूंकि हमारी सभी पोस्ट सोशल मीडिया टीम द्वारा डाली जाती हैं, इस प्रक्रिया में अनजाने में किसी अन्य लेखक की रचना मेरे नाम से प्रकाशित हो सकती है। अगर ऐसा कोई मामला आपके संज्ञान में आए, तो कृपया मुझे तुरंत सूचित करें।


हमारी स्पष्ट मंशा कभी भी किसी और की रचना को अपने नाम से प्रस्तुत करने की नहीं रही है, और ना ही भविष्य में रहेगी। रचनात्मक क्षेत्र में पारदर्शिता और सम्मान को सर्वोपरि मानते हुए हम पूरी सतर्कता बरतते हैं।
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Post #83

ये आग का शोला है जो सूरज कह लाता है
ये बीच में रह कर सब का शक्ती दाता है
शनी,बुद्ध या वीनस, सब इस के तो हैं दम पे
ये ग्रह इस पे हैं लट्टू यां ये सबको घुमाता है
 

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #84

सूर्यास्त
अहान, (ना ना)
ये कभी अस्त नहीं होता
चलने में व्यस्त सदा रहता
कभी उत्तर में कभी दखण में
कभी पूरब में कभी पच्छम में
तम (अंधेरा) का शत्रु घनघोर बड़ा
तम पीने को हर वक्त अड़ा
दिखता है मानो डूब गया
लगता है हम से ऊब गया
कहता है अब तो सो जाओ
निद्रा सपनो में खो जाओ
मैं आगे की सुध ले आयूं
सब को गंतव्य (target)बता आयूं
कल सुबह मिलेंगे ऊषा संग
देखूंगा तुम्हारे बदले ढंग
मेरे आने से पहले ही
कुछ दौड़ धूप तुम कर लेना
कुछ लोम, विलोम, योगा बंद
कुछ जिम में कसरत कर लेना
तुम स्वजीवन का गणित बुनो
मैं ऋतुओं का गणित लगा आयूँ
सब देवों से इक बैठक कर
उनका काम समझा आयूं
मेरे आने से पहले सुन
मुर्गा तो बांग सुना देगा
कोयल भी तान सुनाएगी
चिड़ियों का झुंड हवा होगा
पश्चिम के अंधेरों का गम ना कर
कल पूरब में सब मिलते हैं
ये बुद्धिमान जन समझाते
यून चक्र सृष्टि के चलते हैं

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #85

Some thoughts this independence day 15अगस्त2020
अर्ज़ किया है
ये एक पर्व ये महा पर्व, दिवाली, क्रिसमस से बड़ा पर्व
ये भारत का उत्सर्ग पर्व, ये बलिदानो का परिणति पर्व
इस पर्व को हासिल करने को, कितने डायरों को झेला है
यह पर्व शहीदी अग्नि पथ, पर लगने वाला पवित्र पर्व
हर सांस सांस पर पहरे को, काला पानी की जेलों को
उत्सव में बदल दे जो उनको,चौड़ी छाती उत्साह पर्व
चिताओं पे लगते मेलों को, पल पल जो याद दिलाता है
उस घोर जवानी में चूमे, फांसी फन्दों का इश्क पर्व
अंग्रेजी जेलों की रोटी में, जब कांच मिलाया जाता था
नाखून खींचते जल्लादों की यादें जीने का विभस्त पर्व
ए “पार्थ “बहुत खुश किस्मत हो , तुम आज़ाद देश के बाशिंदे
आज़ादी को अक्षुण्ण सदा रखना , तिरंगा फहरायो आज पर्व
जय हिन्द

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #86

ये ऐलान दिल्ली में अब उपचार ना होगा
दिल्ली का जो बाशिंदा, उसी का ट्रीटमेंट होगा
खुद बंगलौर जा अपना ऑपरेशन कर के ले आया
मगर हरियाणवी को दिल्ली, foreign country होगा
खुद तुगलक भी अपने आप पे शर्मिंदा हो जाता
अगर उसको पता होता यही मुख मंत्री होगा
संभल ना रही दिल्ली अरविन्द मान लो भाई
Tv भर पे आने से करोना चित नहीं होगा
बारूदी ढेर पर बैठी जो दिल्ली उसको बचा लो
वरना विस्फोट से आहत, पूरा ही चमन होगा
मेरी बातें कड़वी हैं, मगर बोलों में सच्चाई
कभी तरकश में झूठा तीर, “पार्थ “का नहीं होगा

This can be sung on the famous tune of kumar vishvas
Koyi diwana kahta hei

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Post #87

ये गोमको की क्लास है, इसका मुकाबला कहाँ
ये मानिको का हार है, इस जैसा काफिला कहाँ
इसमें भरे हैं जीनियस,, बदमाशों की कमी नहीं
ये धरती से जुड़े हुए, इन जैसा वलवला कहाँ
ये लड़कियां निहारते, ये सीटियां भी मारते
इन भोले भाले चेहरों में कौन सी बला कहाँ
जैन की दुकान पर, किताब तो बहाना था
ये बैठे बैठे सोचते और लूँ उन्हें बुला कहाँ
ये कनखियों से देखती, ये छोरियां भी कम ना थीं
ये आँख भर ना देखती, इसका अब गिला कहाँ
ये फूल मालवा के साथ कितनी हैं यादें जुड़ी
पहले दिन का पहला शो क्रेज़ अब भला कहाँ
वो माखनी की जफियां, गोगना की सनकियाँ (वो मोहनी की झिड़किआं )
वो पहले प्रोफ का सबक, भूलता भला कहाँ
खन्ना के नोट्स पढ़े, सहगल , की माइक्रो
वो शशि जगदीश सी, जोड़ी अब भला कहाँ
Gp कहे diagnosis, के सिवा कुछ भी नहीं
जनक का भी यही मन्त्र, विलुप्त ये कला कहाँ
जॉली अजमेर से जो सीखने को मिल गया
ऐसा फिर से सीखने का मौका फिर मिला कहाँ
हरचरण सिंह की दहाड़, गूंजती है अब कभी
शिक्षा जगत का सूरमा अब मिले भला कहाँ
गायनी में गनडा सिंह लड़कियों में ख़ौफ़ थी
लड़के कभी फेल नहीं , ऐसा फल सफा कहाँ
 

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #88

सदियों में इक बार बने, ऐसा प्रबल संयोग
आज ही सूरज ग्रसित, आज दिवस है योग
प्रभु आज दिन भी बड़ा, करो रामबाण अनुदान
ताकी महामारी प्रकोप से, बच जाये जगत जहान

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #89

सन बासठ से पहले हमने पंचशील अपनाया था
हिंदी चीनी भाई भाई का नारा खूब लगाया था
इसे याद ये रख के चलना, इनका कोई एतबार नहीं
फिर ना ये दोहरा जाये जो पहले धोखा खाया था

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #90

चार लाइने अर्ज़ हैँ
सहमत हो तो appreciate ज़रूर करना
संविधान निर्माताओं ने ऎसी कर दी भूल
शिक्षा के प्रसार के विरुद्ध बनाये रूल
अगर वोट का शिक्षा से जुड़ जाता नाता
अब तक सारा देश पढ़ा लिखा हो जाता

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #91

गजल
मीटर 2122,2122,2122,212
काफिया आ
रदीफ हूं मैं
सब नही पर कुछ तो समझे अब थका हारा हूं मैं
पर नहीं वो जानते खुद हौसला अपना हूं मैं
सोचते ये सोचते जो आ गयी मुझको हंसी
लोग सोचें क्यों अभी पगला हुआ जाता हूँ मैं
इक अधूरी रात की जो बात बाकी रह गयी
उसको रोशन करते करते , खुद हुआ धुंधला हूँ मैं
देख कर इंसान के इंसान पर जुल्मो सितम
अब तो इंसानों की फितरत से डरा जाता हूं मैं
सर हुई मंजिल मगर जो , छिल गये थे मेरे पैर
ना समझ समझे की आखिर लड़खड़ा सकता हूं मैं
“पार्थ ” फिर से इक महाभारत का मौका सामने
कुछ कबूतर ही अमन के अब उड़ा पाया हूँ मैं

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #92

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सर झुका घुटनो पे आ, माफ़ी मांगी सरकार
पुलिस दिलों में उतर के , जीता सबका प्यार
गलती कर मांगी क्षमा, ये साहस का काम
क्षमा जो करे दे मन से,उसको भी प्रणाम
 

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #93

साबुन से लो हाथ धो, बनो करोना ढाल
फिर मुठी में भर लियो मिर्ची लालम लाल
असर नहीं वायरस पर, ये है पक्की बात
मगर आँख से दूर रहे, तुम्हरा चंचल हाथ
Tonights four liner, नेहा से प्रेरित हो कर
वायरस पर ना होत है, इसका कोई आघात
अखियों से पर दूर हो, तुम्हरा चंचल हाथ

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #94

महत्वपूर्ण सूचना


चूंकि हमारी सभी पोस्ट सोशल मीडिया टीम द्वारा डाली जाती हैं, इस प्रक्रिया में अनजाने में किसी अन्य लेखक की रचना मेरे नाम से प्रकाशित हो सकती है। अगर ऐसा कोई मामला आपके संज्ञान में आए, तो कृपया मुझे तुरंत सूचित करें।

हमारी स्पष्ट मंशा कभी भी किसी और की रचना को अपने नाम से प्रस्तुत करने की नहीं रही है, और ना ही भविष्य में रहेगी। रचनात्मक क्षेत्र में पारदर्शिता और सम्मान को सर्वोपरि मानते हुए हम पूरी सतर्कता बरतते हैं।
आपके सहयोग और मार्गदर्शन के लिए सादर आभार।

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साहिर ने लिखा था की जंग ख़ुद एक मसला है। उसी को सामने रख ये ग़ज़ल कही है। उम्मीद है आप सबको पसंद आयेगी
ग़ज़ल
मीटर 1222×4 क़ाफ़िया : अल रदीफ़ : करने को निकले हैं
ये जंगो (मसले)से सभी मसलों का हल करने को निकले हैं
ये बारूदों को अब अपनी फसल करने को निकले है
परिंदे जो बचे ज़िंदा ये उनका कत्ल कर देंगे
अमन के नाम पर जंगो जदल करने को निकले हैं
कभी गाते थे गीतों में, कभी नज़मों में लिखते थे
मगर कुछ दिन से दर्दे दिल ग़ज़ल करने को निकले हैं
हमें विश्वास था की वो भरोसे को ना तोड़ेंगे
मगर वो ही निशाख़ातिर से छल करने को निकले हैं
सफाई है बड़ा अभियान शहरों में बजा डंका
लो कूड़े के पहाड़ों को विमल करने को निकले हैं
कभी सोचा ना था, ये दल नहीं दलदल बड़ी भारी
उसी दल दल को ये मिलके कमल करने को निकले हैं
जो बहती धार सा चंचल कभी भी टिक नहीं पाता
वही दिल बाँध पल्लू में अचल करने को निकले हैं
जमालों से कमालों को सदा अंजाम देते हैं
ये हँस के हर बड़ी मुश्किल सरल करने को निकले हैं

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Post #95

साल चढ़ा था बीस जब,दुनिया मनाया जश्न
जाते जाते छोड़ गया,कितने उनसुलझे प्रश्न
कोविड के प्रकोप से, है सारी दुनिया त्रस्त
दुनिया के हर देश को,कोविड कर गया पस्त
शिव का तांडव जग ने पहले ऐसा कब देखा था
शायद सब के पाप पुण्य, यही जोखा लेखा था
मालदार और महाबली,घुटनो पे हैं सब देश
दुआ करें कब बीते ये,मिटे विश्व का क्लेश
इसके जाने की आहट से,आहत विश्व हंसा है
वैक्सीन आने से निकले जो कोविड पेच फंसा है
सदियों में पहली बार हुआ नकाब हुई है जान
गुजरो साल अनिष्टे देखें, हर लब पे मधुर मुस्कान

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Post #96

सभ्यता तो बची है किताबों में अब
दिखती ही नहीं है समाजों में अब
खंडहरों में पड़ी है कहीं गुमशुदा
रो रही देख गिरते लिहाजों को अब
 

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Post #97

सपने हवा में घुलते जाते, जीवन क्षण भंगुर हुआ
आज सुशांत शांत हो गया, इन आँखों से दूर हुआ
इस तरह पलायन करना , बिल्कुल समझ नहीं आता
तुम तो धोनी थे फिल्मों के, क्यों जीवन मजबूर हुआ

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Post #98

सच ज़िंदगी का सम्मुख खड़ा हो गया
इक पल में मैं कितना बड़ा हो गया
आप जब तक थे, तब तक बच्चा था मैं
जिंदगी का पल सामने खड़ा हो गया
जानें क्यों मैं क्षणों में बड़ा हो गया
उंगली थाम चलना था सीखा कभी
उनकी छाया में पनपा था कुनबा सभी

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Post #99

सचाई को देख के, आँखों को मत मूंद
अपना जो हो रास्ता, इसमें ही तुम ढूंढ
इसमें ही तुम ढूंढ़, ना इस से बच पयोगे
यही भगवान अनंत, इसी में शिव पयोगे
 

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Post #100

सोनू सूद ने सेवा का काम किया बेजोड़
फंसे हुए मजदूर को घर तक दीना छोड़
घर तक दीना छोड़, दिया सन्देश बड़ा है
बड़बोली सियासत के मुंह चपत जड़ा है

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Post #101

सोशल मीडिया पर आज, लोगों किया धमाल
खबर करोना साहिब को, हो गया केजरी वाल
हुआ केजरी वाल, करोना समझ ना पाए
कैसे इस आफत से अपनी जान बचाये
 

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Post #102

सीसेरियन के बिना कोई आता नहीं
वेंटीलेटर बिना कोई जाता नहीं
ज़िन्दगी मौत ना मिलती जब तक
कोई इनकी पूरी कीमत चुकाता नहीं
याद करलो कभी मुफ्त का दौर था
मुफ्त में सब की जाने थी जाती रही
दीप जलने से पहले ही बूझते रहें
मांयें प्रसव में जाने गवाती रहीं
लोग ऊपरी कसर से मर जाते थे
ज़िन्दगी की कीमत कुछ भी ना थी
आज महंगी ज़िन्दगी जान संतोष है
वेंटीलेटर वाली कीमत तो कुछ भी नहीं
 

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Post #103

चार लाइने अर्ज़ हैं, शाहीन बाग और बेंगलुरु के नाम
सेकुलरिज्म के नाम पर,किया देश का नास
सत्ता का घिनोना खेल ये करेगा दर्ज इतिहास
अधिकार यहाँ समान हैं जिम्मेदारी भी एक समान
ढोंगी, सत्ता लोलूप नेता, कब समझेंगे ये ज्ञान

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Post #104

सुबह सुबह से मिल रहे संदेशों में भरा है प्यार
हर सन्देश ये कह रहा बस प्रेम ही जीवन सार
सबसे मिले आशीष ये शुभकर्मण सदा हो लक्ष्य
मेरी होंद करती रहे रहे जग में आनंद संचार
जिन्होंने समय निकाल कर, भेजे शुभ सन्देश
उनको मेरी ओर से प्यार भरा नमस्कार
जो किसी भी कारण,ना दे पाए शुभकामना
उन भी को करता हूं नमन व्यक्त करूँ आभार
 

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Post #105

ये चार लाइने अर्ज़ हैं
स्वामी दास ने ये कहा मत बिजली को रो
24घंटे करो डॉक्टरी, समय पे टैक्स भरो
फिर मुफ्त बंटेगी बिजली,या नेता घर जाई
तुम अँधेरे में रहो, यही तेरी नियति भाई

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Post #106

1212 1212 1212 22
सुकून की तलाश में भटक रहे हैं हम
रेतों के घर बना के यूं बिखर गए हम तुम
वजह न थी क्या सितम बिना वजह ही था
तो कौन सी वजह जिसे तलाशते हो तुम
मेरा न कुछ लुटा लुटा वो तेरा ही तो था
क्या क्या तेरा लुटा ये जानते हैं हम
सितम कभी हुए तो हम भी हँस के रोये थे
बता दो आंसुओ तुम्ही कहां बहाए गम
जो तुम ने दी जुबान अब उसी कही की रख
जो सुन के भी सुना नहीं क्या कहें जानम
मेरी या कुछ हमारी लिखलो दास्तां है ये
उल्फत के रास्ते में जो बढ़ते गए कदम
यूं”पार्थ” की तकदीर में सब कुछ लिखा मिला
वो ढूंढता रहा मगर लिखे मिले ना तुम

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Post #107

कल रात kbc का episode देखते देखते रचित, एक बच्ची के हाथों के प्रत्यारोपण से उसकी ज़िन्दगी कैसे बदल गयी देख कर दिल भर आया
सौ बातों की बात है, नौ मर्ज़ों का निदान
मौत के बाद भी ज़िन्दगी, दे देता अंग दान
दफ़न करो शरीर को, या करो हवाले आग
इससे अच्छा रास्ता , बचें किसी के प्राण
लोटा बन के राख का क्यों गंगा में बहायो
ज्योति बन के आँख की करो जगत कल्याण
प्रेम के पंछी कह रहे, मेरा दिल अब तोर
धडके धड़क दिल आपका डाले किसी में जान
गुर्दा, फेफड़ा, हाथ भी transplant ho जायें
हर इक पुर्जा शरीर का आये किसी के काम

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Post #108

Meter 2122,2122,2122,212
काफिया अ
रदीफ भी कुछ लोग हैं
ढूंढते हैं चांद में अब दाग भी कुछ लोग हैं
आग पानी में लगाते आज भी कुछ लोग हैं
हुस्न वाले हुस्न की तारीफ कर भरमा दिये
सच बनाते किस तरह से झूठ भी कुछ लोग हैं
बेखबर सब हांकते हैं अपनी अपनी बात को
बाखबर चिंतित हैं और हैरान भी कुछ लोग हैं
मां की बोली और, पर हिन्दी में लिखते छंद हैं
प्यार मौसी से निभाते आज भी कुछ लोग हैं देखते सब हर शहर में कूड़े के अम्बार हैं
देखते पर ना बदलते सोच भी कुछ लोग हैं
“पार्थ” तुम सच्चे दिल से जो करो करते रहो
उल्टे सीधे खोज लेते सार भी कुछ लोग हैं

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Post #109

तपाक से लग के गले मिलते थे जो क़भी
आज बस करते नमस्ते, दूर से डरते सभी
कैसे गिरे कैसे उठे, हमें भी बता दो तुम ज़रा
हमको भी तो जाना है उसी डगर अभी अभी
गिरना, फिर गिर के उठना, माना ये खेल है,
खेलते हैँ अच्छे खिलाड़ी इसको भी कभी कभी
इतने तो नाज़ुक मिज़ाज़ हम ना थे.
चोट ही गहरी लगी हैँ देख लो अभी अभी
उनकी मिज़ाज़ पुरसी में बिता दी सारी जिंदगी
आँख भर मुड़ के ना देखा ज़ालिम ने पर क़भी
अब तक अकेले ही कटा है रास्ता ए हम सफर
बात करने की, क्या फुर्सत थी कहाँ किसको क़भी
बीते पलों की स्मृति सहेज कर रखना तू पार्थ
गठरियाँ ये ही सदा साथ ले जाते सभी

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Post #110

तेवर मेरे चंद्र गुप्त से,मैं कल का सम्राट
मेरे आगे पानी भरते सब अंग्रेजी लाट
भारत भाग्य मैं लिखूंगा ये पक्का वादा
मेरे ख्वाबों के पाँखों की अभी से देखो ठाट

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Post #111

डॉक्टर लोग शुरू से इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि यूनिवर्सल masking और social distancing ही कोरोना से लड़ने का एक मात्र तरीका है
आज प्रधान मंत्री ने भी यही बात दोहराई
चार लाइने अर्ज़ हैं
फिर फिर मोदी कह रहे, अच्छा भला नकाब
दो गज़ की सबसे दूरियां, करेंगी सही बचाव
नाको मुहं ढाँके रहो, खुला कभी न छोड़
कोरोना से बच के रहो , इसको नहीं लिहाज

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Post #112

फिर वही बेताल उड़ कंधों पे वापिस आ गया
जिंदगी तो मौन ही है सब मुझे समझा गया
लड़ लो या मिलजुल के जी लो, आप की ये मौज है
सच के आगे झुक विजेता असली वो कहला गया
आज दीवाली पे जितने भी दिए रोशन करो
पर वही दीपक खरा दिल जो उजाला पा गया
शीशे पत्थर दर्दों गम की थी कही गजलें कई
आज लिख के प्रेम परचम हर जगह लहरा गया

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Post #113

On extremely irresponsible behaviour of media on sino indian relations. Left to tv reporters indo china war would have had occured many months ago. Chill folks. Have faith in your leaders


फौजें लड़े या ना लड़ें, मीडिया की शुरू है जंग
मीडिया की माने तो चीन डरा, भारत दिखे दबंग
युद्ध खुद है एक समस्या , ये कोई समाधान नहीं
तैयार रहो पर इस को टालो,ये कोई निदान नहीं

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Post #114

मीटर 2122 2122 212
काफिया आं
रदीफ़ absent
गैर मुरद्फ ग़ज़ल
एक ग़ज़ल
बस यही है जिंदगी की दास्तां
हर घड़ी ये ले रही है इम्तिहाँ 11
खार भी अब खार खा के पूछते
क्या महकते फूल से ही गुलसितां 11
जिसपे हम मिलके चले थे दो कदम
वो ही तो अपने लिऐ है कहकशां 11
हाथ भर का फासला ना पट सका
अब मगर रस्ते जुदा हैं जाने जां 11
हाल कोई भी हो जीना तय हुआ
किस्मतों का बस यही बेहतर बयां 11
उनको देखा देखता ही रह गया
क्यों नज़र अपनी खुद्दाया बेज़ुबां 11
साफ गोयी के लिए बदनाम हम
सच्चे हैं रखते नहीं शीरी ज़ुबां 11
तुम जिसे कहते हो मेरा घर है ये
बिन मुहब्बत वो मगर खाली मकां 11
दूरियों का जिक्र तुम करते रहो
फासले ना रख दिलों के दरमियां 11
नफरतों से जब जले सारा नगर
कैसे बच पायेगा तेरा आशियां 11
हैं कठिन तन्हाइयां पर क्यों डरें
तन्हा जो वो ही मुहब्बत है जवां 11
“पार्थ”उस्तादों से पूछो क्या कहन
बन्दिशों पे क्यों करो गजले- गुमां 11

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महत्वपूर्ण सूचना


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हमारी स्पष्ट मंशा कभी भी किसी और की रचना को अपने नाम से प्रस्तुत करने की नहीं रही है, और ना ही भविष्य में रहेगी। रचनात्मक क्षेत्र में पारदर्शिता और सम्मान को सर्वोपरि मानते हुए हम पूरी सतर्कता बरतते हैं।
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Post #115

बिना भूमिका के, बस इतना ही कहता हूँ
बिन सिया मेरे राम अधूरे
राम राम की गूंज है सब बोलें जय श्री राम
राधा बिन जो शाम हैं सिया बिना वो राम
अब सब के सब मिलके, जयघोष करें अविराम
जय जय जय हो, जय हो, जय हो सियाराम

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Post #116

बँधी मुट्ठी से यूँ फिसली, ये तेरे प्यार की की किरणे
रौशन कर गयी दुनिया ये तेरे नूर की किरणे
मेरी कोशिश थी अपने हाथ के दायरे में मैं रख लूं
छिटक के हर तरफ फैली, जो मानों इत्र हों किरणे
तमन्ना थी की हर चौखट पे सूरज हम ऊगा आएं
उगाने से बहुत पहले बगावत कर गयी किरणे
दुनियाँ के अंधेरों को वो चाहे चीर ना पाईं
मेरे अंदर अंधेरों को उजाला कर गयी किरणे
मोहब्बत से भरा दिल हम बनायें दोनों हाथों से
देखना कैसे खिलतीं हैं मचलती धूप सी किरणे
ये “पार्थ ” क्यों नहीं बनता अभी तीरों का हमराही
क्यों उसको आज विचलित कर रही मोह पाश की किरणे

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Post #117

Meter 2122,2122,2122,212
बहरे रमल मुसम्मन महजूफ़
काफिया “आ ग”
रदीफ “भी कुछ लोग हैं”
ग़ज़ल
ढूंढते हैं चांद में अब , दाग भी कुछ लोग हैं देख पानी में लगाते आग भी कुछ लोग हैं
हुस्न वाले हुस्न की, तारीफ कर भरमा दिये
झूठ सच का गा रहे अब, राग भी कुछ लोग हैं
बेखबर सब हांकते हैं ,अपनी अपनी बात को
बाखबर हैरान, चुप, बेलाग भी कुछ लोग हैं
मां की बोली और, पर हिन्दी में लिखते छंद हैं
आज मौसी से निभाते , लाग भी कुछ लोग हैं देखते सब हर शहर में कूड़े के अम्बार हैं अपने ख़ुद नापाक करते, बाग भी कुछ लोग हैं
जानते सब की भरोसा, टूटता अक्सर यहां
आस्तीनों में पलें वो ,नाग भी कुछ लोग हैं
“पार्थ”जो तुम सच्चे दिल से, कर रहे करते रहो
गलतियों को ढूंढ़ लेते, घाग भी कुछ लोग हैं

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Post #118

Gandhji once said “means should determine the end ” our business tycoons dont يبدو to understand this. For them नंबर 1 is all that important


चार लाइने अर्ज़ हैं
2122 2122 1212 212
बेबसी की आहों पे जो महल ख़ड़े होते हैं
उनकी नीवों में करोड़ों के स्वप्न दबे होते हैं
मंज़िलें जो पाकीजा रस्तों से ही हैं फतह होती
उन मंज़िलों में दुआयों के फल लगे होते हैं

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Post #119

Gandhji once said “means should determine the end ” our business tycoons dont يبدو to understand this. For them नंबर 1 is all that important
चार लाइने अर्ज़ हैं
2122 2122 1212 212
बेबसी की आहों पे जो महल ख़ड़े होते हैं
उनकी नीवों में करोड़ों के स्वप्न दबे होते हैं
मंज़िलें जो पाकीजा रस्तों से ही हैं फतह होती
उन मंज़िलों में दुआयों के फल लगे होते हैं

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Post #120

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Maulana saad, the architect of india covid woes and explosion still out of reach of indian police after 100days.
चार लाइने अर्ज़ हैं
मिला नहीं अभी साद, हालांकि सौ दिन बीते
कहने को मुस्तैद पुलिस, हाथ अभी तक रीते
शातिर हो या मुर्ख, नाक के नीचे निहारो
दिल्ली के किसी बड़े नेता के घर छापा मारो

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Post #121

For those who are happy at building a temple for lord राम, and feeling ecstatic. They must also not forget that without सिया, राम is incomplete. Here is my four liner for all of them

मंदिर एक बना दिया, नहीं ये पूरा काम
मर्यादित व्यवहार हो, तो खुश हो जायें राम
त्याग, तपस्या उनसा, जीवन में धारण करें
फिर सब मिलके बोलें, जय जय जय सिया राम

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Post #122

Young people not observing masking and social distancing.they are forgetting that they may be able to bear the covid onslaught, but old persons in their families may actually perish. I beg them to observe discipline for the sake of oldies who are the ornaments of any household
Dl


चार लाइने अर्ज़ हैं
मास्क रहित, जवान जो बैठें पासम पास
ताऊ का पूत करोनवा, उनका खासम खास
बड़े बूढ़े बज़ुर्ग जो उनके घर में रहें
उनकी बला से कल मरें, या फिर आज ही मरें

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #123

My gratitude to all my teachers from नन्द लाल who was my first formal teacher in my school at poojan wala mohalla bathinda, to all those who shaped me into a human being and doctor, what I am today


मात पिता के स्वर्ग है, धरा गुरु के पाँव
इन तीनों से मनुज को मिलती ठंडी छाँव
आज गुरु सम्मान दिवस , प्रणाम करूँ अनंत
पहला वन्दन आप को, फिर वन्दे एकदन्त

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #124

Donec id dictum tellus. Proin ut tincidunt nunc. Nunc volutpat, magna ornare eleifend feugiat, sem tellus varius ex, dignissim euismod purus urna et magna. Nullam eu massa mi. Vivamus ac rhoncus sit amet felis vel turpis vehicula dapibus.

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #125

मात पिता के स्वर्ग है, है धरा गुरु के पाँव
इन की वजह से जीतें हैं हम जीवन का संग्राम
आज गुरु सम्मान दिवस , प्रणाम करूँ अनंत
पहला वन्दन आप को, फिर वन्दे एकदन्त

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #126

रूबाई
मीटर
2212 2122 2122 222
काफिया हासिल रदीफ हो
महनीय वो जिसको अपने आप पर जय हासिल हो
महनीय वो जिसका जीवन संतुलित हो कामिल हो
जो ज़िंदगी से मिला सकता हो अपनी आंखों को
जो मौत के जबड़ों से जीवन बचाने काबिल हो

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #127

महामारी के काल में, ये गण तंत्र दिवस विशेष
उल्लास हो तब कई गुना, कोविड से जीते देश
किसान उद्वेलित देश का, उसका भी रहे ख्याल
ट्रैक्टर, निकले धूम से, ना मचे कोई बवाल
आन बान इस देश की, अक्षुण्ण रहे बेदाग
तिरंगे तले जलती रहे, देश भग्ति की आग
मत भेद हज़ारों पाल लो, मन भेद नहीं हो एक
लड़ें मरें कटें आपस में, देश हित में पर हों एक

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #128

मैं शब्द रचित हूँ चित्र कथा
मैं उद्वेलित मन की अमर कथा
मैं गीत मिलन का कहलाऊँ
मैं विरह की जोगन व्यथा कथा
मैं हँसते शब्दों का पुष्प पुंज
मैं रिसते जख्मों की प्रेम कथा
मैं अंतर्मन मन का मौन रुदन
मैं अक्षर अक्षर भाव मथा
मैं पूर्ण कहानी जीवन की
मैं पल छिन नश्वर काल सुता
मैं चाँद चकोरी की प्रीत अमर
मैं मुक्त ख्याल का समर यथा
मुझे जी के या मर के जी लो
मैं छंद, स्वछंद दिल की कविता

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #129

मैं कभी भी कोई गीत लिखूंगा,
तुमको ही अपना मीत लिखूंगा,
मिलना बिछड़ना होता रहेगा
इसको ही जग की रीत लिखूंगा
नदिया के तुम इक हो किनारे
छोर पे दूजे मैं रहता हूं
मिलना नहीं पर साथ ना छूटे
इसको ही सच्ची प्रीत लिखूंगा
दिखने में हैं ये फासले छोटे
उमरें बीतें तय नहीं होते
पर उम्मीद नहीं मरती है
हो जाए कभी दीद लिखूंगा
हर इंसान उस नूर से उपजा
हर इंसान में वो रहता है
ये बन्धन हमने किए पैदा
ऐसी मैं तागीद लिखूंगा
तागीद is instruction

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #130

Inspired by the fading चाँद this morning
चाँद
मैं हूँ ऊगा या ढल गया, फिर भी रहा मैं चाँद हूँ
दिनके प्रहर भी चाँद हूँ, रात्री प्रहर भी चाँद हूँ
मैं घटते घटते घट गया, में बढ़ते बढ़ते बढ़ गया
छोटा हुआ बड़ता गया फिर भी रहा मैं चाँद हूँ
गुरपूर्णिमा की मैं श्रधा, मस्या की मैं दीपावली
मैं दूज का मैं तीज का, मैं चौधवीं का चाँद हूँ
जब गाँव तुमने छोड़ा था, मैं पीछे पीछे दौड़ा था
मैं रोकता ही रह गया, मैं बेबसी का चाँद हूँ
मैं चाँद मामा दूर का , मैं पुए पकाये बूर का
मैं बाल पन की कल्पना, का भोला भाला चाँद हूँ
मैं सूर सा सूरज नहीं, मैं तारों सा ना केशवा
मैं तो लघू खद्योत हूँ, मैं तुलसी सा ना चाँद हूँ
मैं चकोरी को निहारता, वो टिकटिकी बांधे खड़ी
मैं उस लम्हे की जुस्तजू , मैं ही तो छत का चाँद हूँ
मैं चिलचिलाती धूप को, शीतल बना दूँ चांदनी
मैं प्रेम में घोलूँ मिठास, मैं प्रेमियों का चाँद हूँ
ए “पार्थ “तेरे बाण में तो युद्ध का उन्माद
है
पर मैं तो पुष्प का धनुष, मैं तो रति का चाँद हूँ

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #131

मेरी माँ को मेरी कविता समझ ना आई
मातृ भाषा में लिखी हुई वो ना पढ़ पायी
अनपढ़ थी , फिर भी समझी, बेटे की रूह कांप रही है
उसके दिल की अपनी धड़कन, मेरी धड़कन भांप रही है
उसकी कोख से जन्मा बच्चा, कहीं दुखों से घिरा हुआ है
जीवन युद्ध के संघर्षों में, बुरी तरह से पिरा हुआ है
कोसों कोसों दूर बहुत वह अपनी माँ से
दूर बहुत है अपनी माँ की ठंडी छाँ से
एक बात जिसका उसके मन में दर्द बहुत था
कुख् जन्में ने माँ को छोड़ कागज पे अपना दुःख लिखा था
इतना सोच माँ ने कागज सीने से लगाया
तपती रूह को अंततः मिली ममता की छाया

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #132

ग़ज़ल
Meter 1222×4
काफ़िया आने रदीफ़ की
मुझे तो पड़ गयी आदत वजह बिन मुस्कुराने की
छुपा के गम बसा दिल में सदा हंसने हंसाने की
समय पकड़ा नहीं जाता फिसल जाता है हाथों से
कहानी इसकी बचती है मगर आंसू बहाने की ii
वख्त की चाल को समझो के नौबत ना कभी आये
उठायो दाम उतना ही, न हो मुश्किल गिराने की ii
हमारे दिल के दरवाजे कभी तुम खोल के देखो
वहां तस्वीर है महफूज़ उस गुजरे जमाने की ii
ए पार्थ लिख रहा कब से तू अपने गीत ग़ज़लों को
बची इक हूक है दिलमें इन्हें सुर लय में गाने की ii
डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #133

मौत देखो किस कदर जीवन पे भारी हो गयी
लाश की भी देख लो मर्दम् शुमारी हो गयी
कल तलक चेहरों पे हंसती खेलती थी रौनक़ें
आज सन्नाटे में मातम की तयारी
हो गयी
अट गये शमशान मरने वाले कम ना हो रहे
लकड़िया हैं खत्म,अब उपलों की बारी हो गयी
कर्म का फल समझें या समझें तेरी बे रहमियां
तेरी बंसी धुन पे तांडव, धुन ये भारी हो गयी
“पार्थ” भी अंतिम सफर में, ना दे पाया साथ को
आना जाना एकला , नियती हमारी हो गयी

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #134

राब्ता poetry, तेरे मेरे एहसास
# एक विषय एक कविता
#विषय _उड़ान है जिंदगी
नमन मंच, मेरी प्रस्तुति स्वीकार करें
रुकती नहीं है जिंदगी ये जोश की उड़ान है
हर पल संघर्ष लिप्त है हर घड़ी इम्तिहान है
थार में मरीचिका तुम को लुभाने आएंगी
और वख्ती आंधियां तुम को डराने आएंगी
पथ में तुम्हारे वो नुकीली कंटिका बिखरायेंगी
याद रखना तुम मगर ये तो क्षणिक व्यवधान है
रुकती नहीं है जिंदगी ये जोश की उड़ान है
हर पल संघर्ष लिप्त है हर घड़ी इम्तिहान है
खुद प्रलयंकर जब धरा पर मौत बनकर आए थे
बनके उल्कापिंड जब इस पृथ्वी से टकराए थे
हर तरफ थी बस हताशा निराशा के बादल छाए थे
पर कटे ,पर ना गिरे, हौसलों में होती जान है
रुकती नहीं है जिंदगी ये जोश की उड़ान है
हर पल संघर्ष लिप्त है हर घड़ी इम्तिहान है
हिमालय की ऊंची से ऊंची चोटी को हमने सर किया
चांद तारों में भी जाके हमने अपना घर किया
सिंधु के तटबंध बांधे उसको वश में कर लिया
अब रजा खुद खुदा पूछे यही इसकी शान है
रुकती नहीं है जिंदगी ये जोश की उड़ान है
हर पल संघर्ष लिप्त है हर घड़ी इम्तिहान है

डॉ सुभाष गर्ग “पार्थ”
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Post #135

Rahat indauri is no more.
Rahat Indauri is no more. A wonderful writer with extraordinary oration skills, he could simply mesmerize the audience. May he rest in peace.unfortunately there is no provision of rebirth in islam


चार लाइने उनके अदब में अर्ज़ हैं
राहत इंदौरी चल दिये, आज प्रभु के धाम
शायरी कीन्ही उपासना,ऊँचा कियो मुकाम
ऐसी बुलंद आवाज़ का, मालिक अब कबहूं आए
इस्लाम धर्म पुनर्जन्म का , नहीं है कोई उपाए

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Post #136

Modi ji ki self sufficiency call per
चार लाइने अर्ज़ हैँ
22 अगस्त 1919
विदेशी कपडे होली जला, मोहन दिया सन्देश
बिलबिला के रह गया, महाबली अंग्रेज़
12 मई 2020
महाबली अंग्रेज़, आई अब चीन की बारी
स्वाबलंबन मन्त्र, – मुग्ध है दुनिया सारी

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Post #137

वो सूखी पत्तियां थी वहां प्रेम पुष्प की
काफिया ईत रदीफ के
Meter
221 2121 1221 212
तुम ही नहीं मिले पढ़े पन्ने अतीत के
कुछ भूले बिसरे गीत मिले तेरी प्रीत के
कुछ सूखी पत्तियां थी वहां इक गुलाब की
थे ख्वाब कुछ अधूरे से अपने सुमीत के
पहलू में रख के सिर कभी रोए थे हम बहुत
हंस के सहे थे जुल्म ज़माने की रीत के
मैं कैसे भूलूं पल कभी तुम से मिले थे हम
पहले मिलन की धड़कनों के मीठे गीत के
पावन सा था वो इश्क जो हम तुम ने था जिया
अब भी मनाते जश्न हैं उस हारी जीत के
आयो के जी के देख लें फिर वो हसीन पल
आयो के फिर कुरेद लें पन्ने अतीत के

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Post #138

Poet I adore
वो लुधियाने का साहिर था
वो अपने फन का माहिर था
वो चुन चुन नज़्मे लिखता था
वो गहराई तक चुभता था
वो खुद से जंगें लड़ता था
वो विरह की ग़ज़लें पढ़ता था
क्रांति का बिगुल बजाता था
शब्दों के तीर सजाता था
तल्ख, तलखियाँ, शहनाईयां
वो युद्ध में जलती परछाईयां
खुद क़ो पल दो पल कहता है
दशकों से दिल में रहता है
उसका कौशल जग जाहिर था
वो जादूगर वो साहिर था

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Post #139


शिक्षा नीती पर चार लाइने अर्ज़ हैं
पहले दस प्लस दो के बाद लगे था तीन
फिर अंको में उलझी शिक्षा नीती सार विहीन
वो शिक्षा शिक्षा नहीं , जो दे ना पाए रोजगार
ऐसी नीती खोजिये, जो कौशल करे तैयार

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Post #140

शमा जलती रहे कुरबान हो जाता पतंगा है
जो कुर्बानी को दे अभिमान वो मेरा तिरंगा है ii
चमन मेरा जिसे मैं रोज अपना देश कहता हूँ
हिमालय है मुकुट उसका गले का हार गंगा है ii
जहां आरण्य में गूँजें दहाड़ें शेर चीतों की
नदी नालों का कल कल गीत, कानों में तरंगा है ii
जहां खेतों में कुदरत ने बिछाया जाल सोने का
चरण धोता महासागर, पवन पुरबा उमंगा है ii
करा जीवन को अपने होम आज़ादी की जंगों में
वो करते गर्व होंगे आज हर दिल में तिरंगा है ii

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Post #141

शरद चांदनी
शरद कौमुदी, बिछी चांदनी पल पल प्रेम से जी लो
सोमांशु बन बरस रही अँजोरी जी भर पी लो
गोपेश्वर बन महा देव करते धा तिन थइआ
राधा के संग नाचे कान्हा अद्धभुत रास रचइआ
इंद्र ऐरावत, वज्र सभी ले इंद्र लोक को धाये
स्वर्ग से सुन्दर रमनी बसुधा गीत शरद के गाये
लक्ष्मी अवतरित धरती पर करतीं धन धान्य की बर्षा
चहक उठा मानव मन,देखो प्रेम सुधा बन सरसा
सर सरनी में आज भरा है , प्रेमामृत का पानी
शरद चांदनी पी के पी संग जोगन भई दीवानी
ओस कनो से भीग सुमन चातक का जी ललचाये
चंद्रलोक की चंद्र चन्द्रिका भाव विहिल कर जाये
आश्विन की ये पुण्य पूर्णिमा आज चांदनी बरसे
नेह के मेह से स्वर्ग धरा, जिसे देव लोक भी तरसे

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Post #142

लिख तो दी थी 27june को ही. आज हिम्मत बटोर के फेसबुक पर डाल रहा हूं
गुस्सा झेलना पड़ सकता था. फिर सोचा, खफा तो खफा, कौनसा पहली दफा.
तो अर्ज़ हैं अग्रेजों के करवा चौथ HUSBANDS DAY पर BELATED चार लाइने
अंग्रेजों की है करवा चौथ ये सतायी जून
हस्बैंड्स day कहलाता है ये सतायी जून
कौन सता कौन सताया, ख़राब है किसकी जून
झगड़े में ढूंढो प्रेम को, यही तो अब हनीमून

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